Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
तपः शीलवतं युक्तः कुदृष्टिः स्यात्कुपात्रकम् । व्रतसम्यक्त्वतपः शीलविवजितम् ॥ १५० ॥
अपात्र
विशेष जानकारी के लिए अमितगतिश्रावकाचार दशम् परिच्छेद श्लोक १-३९ तक देखने चाहिए। उनके लिखने से कथन बहुत बढ़ जावेगा अतः यहाँ पर नहीं दिये गये । पात्र के भेद से दान के फल में भेद पड़ जाता है। कहा भी है
लाहकावेकरसं विनिर्गतं यथा पयो भूरिरसं निसर्गतः । विचित्रमाधारमवाप्य जायते, तथा स्फुटं दानमपि प्रदातृतः ॥५०॥ अ. ग.वा. परि. १०
अर्थ – जैसे मेघ निकस्या जो एक रसरूप जल सो स्वभाव ही ते नाना प्रकार आधार को पाथ करि धनेक रसरूप होय है वैसे दातात निकस्या दान भी प्रकटपने नाना प्रकार पात्रनिक पाय
अनेकरूप परिणम है।
वसुमन्दी भावकाचार में भी इस प्रकार कहा है
[ ६५५
जह उत्तमम्मि खित्ते पहण मण्णं सुबहुफलं होई । तह दाण फलं यं दिष्णं तिविहस्स पसस्स ।। २४० ॥ जह मज्झिमम्मि खित्ते अप्पफलं होइ बावियं बीयं । ममिफलं विजाग कुपतदिष्णं तहा दानं ॥। २४१ ।।
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अर्थ - जिस प्रकार उत्तम खेत में बोया गया प्रश्न बहुत अधिक फल को देता है, उसीप्रकार त्रिविधपात्र को दिये गये दान का फल जानना चाहिए || २४०। जिसप्रकार मध्यम बेत में बोया गया बीज अल्प फल देता है उसी प्रकार कुपात्र में दिया गया दान मध्यमफल वाला जानना चाहिए || २४१ ||
मेघजल व बीज एकप्रकार का होते हुए भी बाह्य में नानाप्रकार के निमित्त मिलने से नानारूप परिणम जाता है । इसी प्रकार एक द्रव्य व दातार होते हुए भी पात्र के भेद से दान के फल में अन्तर पड़ जाता है । कार्य उपादान और निमित्त दोनों के आधीन है । निमित्त मात्र उपस्थित ही नहीं रहता और न अकिंचित्कर ही है ।
पात्रदान का फल पचनदि पञ्चविंशतिका अधिकार २ श्लोक ९, ११, १२ व १६ में इस प्रकार कहा है - जिस प्रकार कारीगर जैसा जैसा ऊंचा मकान बनाता जाता है उतना उतना आप भी ऊंचा होता चला जाता है। उसीप्रकार जो मनुष्य मोक्ष की इच्छा करनेवाले मनुष्य को भक्तिपूर्वक श्राहारदान देता है वह उस मुनि को ही मुक्ति को नहीं पहुंचाता, किन्तु स्वयं भी जाता है। इसलिये ऐसा स्वपर हितकारी दान मनुष्यों को अवश्य देना चाहिए ||१|| जो मनुष्य भलीभांति मनवचन काय को शुद्ध कर उत्तम पात्र के लिये आहारदान देता है उस मनुष्य के संसार से पार करने में कारणभूत पुण्य की नाना प्रकार की संपत्ति का भोग करनेवाला इन्द्र भी अभिलाषा करता है । इसलिये गृहस्थाश्रम में सिवाय दान के दूसरा कोई कल्याण करनेवाला नहीं है ||११|| इस संसार में मोक्ष का कारण रत्नत्रय है तथा उस रत्नत्रय को शरीर में शक्ति होने पर मुनिगण पालते हैं और मुनियों के शरीर में शक्ति अन्न से होती है तथा उस अन्न को श्रावक भक्तिपूर्वक देते हैं । इसलिये वास्तविक रीति से गृहस्थ ने ही मोक्ष मार्ग को धारण किया है ।। १२ ।। जो मनुष्य मोक्षार्थीसाधु का नाम मात्र भी स्मरण करता है उसके समस्त पाप क्षणभर में नष्ट हो जाते हैं, किन्तु जो भोजन, औषधि, मठ आदि बनवाकर मुनियों का उपकार करता है वह संसार से पार हो जाता है इसमें आश्चयं क्या है ॥ १६ ॥
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