Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ।
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चारित्र किन-किन गतियों में हो सकता है और किनमें नहीं शंका-सम्यग्दर्शन चारों गतियों में हो सकता है तो चारित्र क्यों नहीं हो सकता ?
समाधान-देवगति व भोगभूमिया में यद्यपि शुभलेश्या हैं, किन्तु आहारादि पर्याय नियत हैं अतः वे उपवास प्रादि नहीं कर सकते हैं। इस कारण देवों में व भोगभूमियाजीवों में चारित्र नहीं होता है। नारकियों में मशुभलेश्या होती हैं शुभलेश्या नहीं होती हैं। शुभलेश्या के अभाव में संयमासंयम या संयम नहीं हो सकता । कमभूमिया मनुष्य व तियंचोंकी पाहारादि पर्याय अनियत हैं तथा शुभलेश्या भी संभव है अतः इन में अपनी-अपनी योग्यतानुसार चारित्र हो सकता है । जिनको चारित्र तथा चारित्रवान् पर श्रद्धा नहीं है वे बाह्य वातावरण अनुकूल होते हुए भी चारित्र धारण नहीं करते हैं। जिनको चारित्र पर श्रद्धा नहीं वे सम्यग्दृष्टि भी नहीं हो सकते हैं।
-जे. ग. 15-6-72/VII/रो. ला. मित्तल चारित्र बिना ज्ञान प्रकार्यकारी है
शंका-देखना जानना तो साधारण बात है, यह तो हर मनुष्य के होता है । सम्यक् श्रद्धान या प्रतीति विशिष्टपर्याय है । जिस मनुष्य ने देख जानकर भी अपने चारित्र में डालना प्रारम्भ नहीं किया उस मनुष्य के सम्यक् प्रतीति या श्रद्धा कही जा सकती है या नहीं?
समाधान-यहां पर प्रश्न मनुष्य की अपेक्षा से किया गया है, क्योंकि मनुष्य चारित्र धारण कर सकता है, अतः मनुष्य की दृष्टि से ही इस प्रश्न पर विचार होगा।
जो मनुष्य यह जानते हुए भी कि अग्नि में हाथ देने से हाथ जल जावेगा, अग्नि में हाथ देता है तो उसका जानना, न जानना समान है । यदि ज्ञान के अनुकूल मनुष्य का आचरण नहीं होता है तो वह ज्ञान व्यर्थ है। कहा भी है
"यथा प्रवीपसहितपुरुषः स्वकीयपौरुषबलेन कूपपतनाद्यदि न निवर्तते तवा तस्य श्रद्धानं प्रदीपो वृष्टि कि करोति न किमपि । तथायं जीवः श्रद्धानज्ञान सहितोऽपि पौरुषस्थानीयचरित्रबलेन रागादिविकल्परूपादसंयमाद्यदि न निवर्तते तदा तस्य महानं ज्ञानं वा कि कर्यान्न किमपीति ।"
जैसे दीपक को रखनेवाला स्वांखा पुरुष अपने पुरुषार्थ के बल से कूपपतन से यदि नहीं बचता है तो उसका श्रद्धान, दीपक व दृष्टि कुछ भी कार्यकारी नहीं हुई, वैसे ही यह मनुष्य श्रद्धान, ज्ञानसहित भी है, परन्तु पौरुष के समान चारित्रके बल से रागद्वेषादि विकल्परूप असंयमभाव से यदि अपने को नहीं हटाता है तो श्रद्धान तथा ज्ञान उसका क्या हित कर सकते हैं ? अर्थात् कुछ भी हित नहीं कर सकते हैं।
भी अमृतचन्द्राचार्य ने भी समयसार गाथा ३५ की टीका में कहा है
"माशु प्रतिबुध्यम्बकः बल्वयमात्मेत्यसकृच्छोतं वाक्यं शृण्वन्नखिलेश्चिन्हैः सुष्ठपरीक्ष्य निश्चितमेते परभावा इति शास्वा ज्ञानी सन् मुचति सर्वान्परभावानचिरात् ।"
तू शीघ्र जाग, सावधान हो यह तेरा आत्मा ज्ञान-मात्र है अन्य सब परद्रव्यके भाव हैं, तब बारम्बार यह आगम वाक्य सुनता हुआ समस्त अपने पर के चिह्नों से अच्छी तरह परीक्षा कर ऐसा निश्चय करता है कि मैं एक ज्ञानमात्र है अन्य सब परभाव हैं। इसप्रकार शानी होकर रागद्वेष प्रादि सब पर भावों को तत्काल छोड़ देता है।
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