Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ ५८७ सम्यक्त्वी देव-नारकी की उत्पत्ति मनुष्यों में शंका-सागार धर्मामृत प्रथम अध्याय के तेरहवें श्लोक की टीका में लिखा है-'सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति से पहले जिसने आयु का बन्ध नहीं किया है ऐसे अविरत सम्यग्दृष्टि जीव के भी देवगति में वैमानिक देवों के और मनुष्यगति में चक्रवाविक उत्तम मनुष्यों के पदों की प्राप्ति को छोड़ करके शेष सम्पूर्ण संसार का नाश होने से कर्म जनित क्लेशों का अपकर्ष हो जाता है।' अर्थात् अबद्धायुष्क अविरत सम्यग्दृष्टि जीव भी वैमानिक देवों में तथा उत्तम मनुष्यों में ही पैदा होते हैं । अतः प्रश्न है कि क्या अबद्धायुष्क अविरत सम्यग्दृष्टि जीव भी मरकर के मनुष्य हो सकता है ?
समाधान-नारकी या देव प्रबद्धायुष्क अविरत सम्यग्दृष्टि मरकर उत्तम मनुष्यों में ही उत्पन्न होते हैं, क्योंकि नारकी या देव सम्यग्दृष्टि मनुष्यायु के अतिरिक्त अन्य प्रायु का बन्ध नहीं करते । नरकायु या देवायु का तो देव या नारकी के बन्ध नहीं होता, ऐसा स्वभाव है । तिर्यंचायु की बन्ध व्युच्छित्ति दूसरे गुणस्थान में हो जाती है। अतः देव व नारकी अविरत सम्यग्दृष्टि एक मनुष्यायु का ही बन्ध करते हैं और मरकर मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं । कहा भी है-“सम्यग्दृष्टि नारकी जीव नरक से निकलकर एक मनुष्य गति में ही आते हैं।" (ध० पु० ६ पृ० ४५१ सूत्र ८८)। "सम्यग्दृष्टि देव मरण कर केवल एक मनुष्य गति में ही पाते हैं।" (३० पु० ६ पृ० ४८० सन १८५) । इस प्रकार अविरत सम्यग्दृष्टि जीव मरकर मनुष्य हो सकता है।
-जं. ग. 17-5-62/VII/सु. च. बगड़ा नित्यनिगोद द्वारा सीधी मनुष्यपर्याय प्राप्ति शंका-नित्यनिगोद से निकला हुआ जीव तियंच पर्याय के धारण किए बिना ही मनुष्य पर्याय को धारण कर सकता है या नहीं ?
समाधान-नित्य निगोद से निकलकर जीव अन्य पर्याय को धारण किए बिना मनुष्य हो सकता है इसमें कोई बाधा नहीं है । कहा भी है
पंचिबियतिरिक्खसण्णी असण्णी अपज्जत्ता पढवीकाइया आउकाइया वा, वणफइकाइया णिगोदजीवा बावरा सहमा वावरवणप्फविकाइया पत्त यसरीरा पज्जत्ता अपज्जत्ता बीइंदिय तीइंबिय-चरिविय-पज्जता-पज्जत्ता तिरिक्खा तिरिक्खेहि कालगवसमाणा कवि गवीओ गच्छति ॥११२॥ वे गदीओ गच्छंति, तिरिक्खदि. मनसर्गात ख-मणुस्सेसु गच्छन्ता सव्वतिरिक्ख-मगुस्सेसु गच्छन्ति, णो असंखेज्जवस्साउएसु गच्छन्ति ॥११४॥
(१० ख० पु० ६ पृ० ४५७ ) अर्थ-पंचेन्द्रिय तिर्यंच संज्ञी व असंज्ञी अपर्याप्त, पृथिवीकायिक या जलकायिक या वनस्पतिकायिक, निगोद जीव ये सब बादर या सूक्ष्म, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्त या अपर्याप्त, और द्वीन्द्रिय. त्रीन्द्रिय. पतरिन्द्रिय पर्याप्त व अपर्याप्त तिर्यंच तिथंचपर्यायों से मरण करके कितनी गतियों में जाते हैं ? ॥११२॥ उक्त तिथंच जीव दो गतियों में जाते हैं-तिर्यंचगति और मनुष्यगति ॥११३॥ तियंचों और मनुष्यों में जाने वाले उपयुक्त तिथंच सभी तिथंच और मनुष्यों में जाते हैं, किंतु असंख्यात वर्ष की आयु वाले तियंचों और मनुष्यों में नहीं जाते ॥ ११४॥
-जे. ग. 23-5-66/IX/हेमवाद
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