Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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स्पर्श घटित नहीं होता। असंयत सम्यम्हष्टि तियंच सोलहवें स्वर्ग तक मारणान्तिक समुद्घात करते हैं अतः उनका छह बटे चौदह स्पर्श होता है। इस षट्खण्डागम सूत्र के अनुसार श्री पूज्यपाद आचार्य ने सर्वार्थ सिद्धि अध्याय १ सूत्र की टीका में तथा श्री वीरसेन आचार्य ने धवल टीका में कथन किया। यह सिद्धांत श्री गौतम स्वामी गणधर द्वारा कहा गया है जो कि षट्खण्डागम आदि ग्रन्थों में लिपि बद्ध किया गया है। अतः ये ग्रन्थ प्रामाणिक हैं। अन्य मनुष्यों द्वारा रचित पुस्तकें प्रामाणिक नहीं हैं। उनके स्वाध्याय से लाभ के स्थान पर हानि होना सम्भव है।
-जं. ग. 29-3-62/VII/ ज. कु. जैन
१. मनुष्य का निगोदों में गमन एवं निगोदों का सीधा मनुष्यों में गमन
शंका-क्या पंचमकाल का जीव ( मनुष्य देहधारी) सीधा निगोद जा सकता है, जब कि महाबल के समय में चौथे काल में वो मन्त्री मिगोद गये लिखा है। दूसरे यह भी आता है कि निगोद से सीधा मनुष्य भी हो जाता है। किन परिणामों द्वारा कौनसी प्रकृति निर्मल हुई कि निगोद से मनुष्य बना और मनुष्य से निगोद में किस पाप प्रकृति के उदय से गया ?
समाधान-जीव के कर्मोदय सर्वथा एकसा नहीं होता। कभी मंदोदय होता है और कभी तीव्रोदय होता है। निगोदिया जीव के आयुबन्ध के समय यदि चारित्रमोह के मन्दोदय के कारण कषायों में मन्दता हो जाती है तो उस निगोदिया जीव के मनुष्य आयु का बंध हो जाता है और वह निगोद से निकल कर मनुष्य हो जाता है।
इसी प्रकार संक्लेश परिणामों द्वारा मनुष्य भी तियंचायु का बंध कर निगोद में उत्पन्न हो जाता है। मनुष्यों से निगोद में और निगोद से मनुष्य में उत्पन्न होने में कोई विरोध नहीं है । तत्त्वार्थसार के जीव-तत्त्व-वर्णन में कहा भी है
त्रयाणां खलुकायानां विकलानामसंजिनाम् । मानवानां तिरश्चां वाऽविरुद्धः संक्रमो मिथः ॥१५४॥
ध० पु०६ पृ० ४५७ सूत्र ११२-११४ में भी कहा है कि निगोद जीव बादर या सूक्ष्म मरकर तिर्यंचगति और मनुष्यगति में जाते हैं, किन्तु असंख्यात-वर्ष की आयु वाले नहीं होते । पृ० ४६८-६९ सूत्र १४१-१४४ में लिखा है कि 'मनुष्य मिथ्यादृष्टि कर्म भूमिज मरकर चारों गतियों में जाता है, तिर्यंचों में जाने वाले उपर्युक्त मनुष्य सभी तियंचों में जाते हैं।' निगोद भी तिथंच हैं। अतः सब प्रकार के तियंचों में निगोद भी आ गया।
-ज. ग. 3-10-63/IX/म. ला. फ. घ.
तेजस्कायिक व वायुकायिक मनुष्य नहीं बनते
शंका-तेजस्कायिक व वायुकायिक से निकलकर जीव मनुष्य क्यों नहीं होता?
समाधान-अग्निकायिक व वायुकायिक जीवों के परिणाम संक्लिष्ट होते हैं, अतः वे तियंचगति के अतिरिक्त अन्य गतियों में नहीं जाते।
"सम्बतेउ-वारकाइयाणं संकिलिट्ठाणं सेसगइजोगपरिणामाभावा।" (ध. पृ.६ पृ. ४५८ )
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