Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
View full book text
________________
व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ ६१३
समाधान- अग्नि के अभाव हो जाने पर भी उन क्षेत्रों में अग्निकाय जीवों का प्रभाव नहीं होता, क्योंकि अग्निकाय जीव सर्वत्र पाये जाते हैं । ( ध. पु. ७, पृ. ३२९ ) बादर तेजकायिक जीव भी भवनवासियों के विमानों व आठों पृथिवियों में निवास करते हैं किन्तु ये इन्द्रियों से ग्राह्य नहीं हैं। ध. पु. ७, पृ. ३३२ ॥
- जै. सं. 11-12-58 / V / ब्र. राजमल
को
कर्म भूमि के प्रलय और प्रारम्भ की तिथि; प्रलयकाल में धर्मात्मानों का प्रभाव आदि विषयक कथन
शंका- क्या कर्म भूमि और प्रलय का प्रारम्भ श्रावण कृष्णा प्रतिपदा को होता है ? शंका-क्या प्रलय के प्रारम्भ में धर्म व धर्मात्मा होते हैं ? और उन धर्मात्माओं को ही देव विजयार्धं में रखते हैं ?
गुफा
शंका-क्या प्रलय के बाद देव उन धर्मात्माओं को गुफा में से निकाल देते हैं और वे धर्मात्मा यहां आकर मा. शु. ५ को प्रथम पर्युषण पर्व की आराधना करते हैं ?
( नोट - ३-९-६४ के जैन मित्र के संपादकीय लेख पर उक्त शंकायें की गई हैं । )
समाधान - युग का प्रारम्भ श्रावरण कृ. १ से होता है, किन्तु प्रलय का प्रारम्भ ज्येष्ठ कृ. १२ से होता है । पंचमकाल के अन्त में ही धर्म का लोप हो जाता है, अतः प्रलय के प्रारम्भ में न धर्म होता है और न धर्मात्मा होते हैं । विजयार्थ की गुफा में धर्मात्मा नहीं रखे जाते, क्योंकि उस समय धर्मात्मा पुरुष नहीं होते हैं । प्रलय के पश्चात् जो मनुष्य विजयार्ध की गुफा से आते हैं वे पर्युषण पर्व को व धर्म को जानते ही नहीं हैं अतः वे पर्युषण पर्व नहीं मनाते हैं । इस सम्बन्ध में आर्य प्रमाण निम्न प्रकार है
Jain Education International
पंचमचरिमे पंक्खडमासतिवा सोवसेसए तेण ।
पिढपडगहरणे सणसणं करिय दिवसतियं ॥ ८५९ ॥ सोहम्मे जायंते कत्तियअमवास सादि पुरवण्हे । इगिजल हिठिदी मुणिणो सेसतिए साहियं पल्लं ॥ ५६० ॥ तथ्वासस्स आदी मज्यंते धम्मराय अग्गीणं । नासो तत्तो मणुसा जग्गा मच्छादि आहारा ||८६१ ॥ पोग्गल अइरुवखादो अलगे धम्मे णिरासएण हो । असुरवडणा णरिंदे सयलो लोओ हवे अंधो ॥ ८६२ ॥ संवत्तयणामणिलो गिरितरुभूपहुदि चुष्णणं करिय । भमवि दिसतं जीवा मरंति मुच्छंति छट्टु ते ॥८६४ ॥ छट्टुमचरिमे होंति मरुदावी सत्तसत्त दिवसवही । अविसीदखारविसपरसग्गी रजघुमव रिसाओ ॥ ८६६ ॥ खगगिरिगंगदुवेदी खुद्द बिलादि विसंति आसण्णा ।
ति दया खचरसुरा मस्सजुगलादिबहुजीवे ॥६६५ ॥ तेहितो सेसजणा नस्संति विसश्विव रिसदढमही । इगिजोयणमेत्तमधो चुण्णीकिज्जदि हु कालवसा ॥८६७॥
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org