Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार |
समाधान - कल्पवृक्षों से जो भोजन सामग्री मिलती है वह अचित ( अचेतन ) होती है । वह वनस्पति की श्रेणी में नहीं आती ।
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-- जै. ग. 9-1-64 / IX / ट. ला. जैन, मेरठ
भोगभूमि में कपड़ों व वस्त्रों की कल्पवृक्षों से प्राप्ति
शंका- कल्प वृक्षों से कपड़े सिले हुए और गहने घड़े हुए मिलते हैं क्या ? कल्पवृक्ष से प्राप्त वस्तुओं का प्रयोग कर्मभूमि के जीव भी कर सकते हैं या नहीं ?
समाधान - ऐसा प्रतीत होता है कि भोग भूमिया जीव सिले हुए वस्त्र नहीं पहनते थे, रहते थे इसलिये सिले हुए कपड़ों का प्रसंग नहीं आता था । आभूषण घड़े हुए मिलते थे कहा भी है
तरओ विभूसणंगा कंकण कडिसुत्तहार केयूरा ।
मंजीर कडयकुण्डल तिरोडमउडादियं देतां ।। ४ । ३४५ ति. प.
धोती दुपट्टा
अर्थ - भूषणांग जाति के कल्पवृक्ष कंकरण, कटिसूत्र, हार, केयूर, मंजीर, कटक, कुण्डल, किरोट और मुकुट इत्यादि आभूषणों को प्रदान करते हैं ।
इसी प्रकार जंबूदीवं पण्णत्ती २।१२९ पृ. २३ व लोक विभाग पृ. ८४ अधिकार ५ गाथा १६ में कहा है । श्री तीर्थंकर भगवान स्वर्ग के कल्पवृक्षों से प्राप्त सामग्री का प्रयोग करते हैं। श्री तीर्थंकर भगवान कर्म भूमि के जीव होते हैं ।
स्वर्ग व भोग- भूमि के कल्पवृक्षों में भेद
शंका - भोगभूमि के कल्प वृक्षों से स्वर्गों के कल्प वृक्षों में क्या विशेषता है ?
में
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-- जै. ग. 19-9-66/1X / र. ला. जैन, मेरठ
समाधान - भोगभूमि के कल्प वृक्षों का कथन तिलोयपण्णत्तो अधिकार ४ गाथा ३४२ ३५४ लोक विभाग ५।१३-२४ तथा जम्बूदीपपण्णत्ती २।१२६-१३७ में पाया जाता है । स्वर्ग के कल्पवृक्षों का कथन वसुनन्दि श्रावकाचार गाथा ४३१-४३२ में है । जिससे ज्ञात होता है कि स्वर्ग में भोजन पान आदि के कल्पवृक्ष नहीं हैं ।
- ग. 19-9-66 / IX / र. ला. जैन, मेरठ
मानुषोत्तर से परे सर्वत्र प्रकाश है।
शंका-ढाई द्वीप से बाहर सूर्यों के स्थिर रहने से जहाँ रात्रि है, वहाँ रात्रि तथा जहाँ सूर्य का प्रकाश पहुँचता है वहाँ दिन ही शाश्वत रूप से रहते हैं। क्या यह ठीक है ?
समाधान - एक सूर्य का प्रकाश पचास हजार योजन तक जाता है । ढाई द्वीप से बाहर यद्यपि सूर्य स्थिर हैं, किन्तु एक सूर्य से दूसरे सूर्य के एक लाख योजन की दूरी पर स्थित होने से सर्वत्र प्रकाश रहता है। हाँ, प्रकाश में होनाधिकता का अन्तर अवश्य रहता है ।
- पलाधार 19-12-79 / ज. ला. जैन, भीण्डर
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