Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
View full book text
________________
व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ १४६ श्रेणी चढ़ने से उक्त अन्तर काल प्राप्त हो जाता है अर्थात् उपशम श्रेणी से गिरकर अर्धपुद्गल परिवर्तन काल तक जीव संसार में परिभ्रमण कर सकता है।
-जं. ग. 12-2-70/VII/ब. प्र. स., पटना
ग्यारहवें गुणस्थान से प्रतिपात का हेतु शंका-जीव को ग्यारहवें गुणस्थान से गिरने में कारण क्या है ? क्या अन्तर्मुहूर्त का समय समाप्त होने से ही यहां से जीव गिरता है या कर्म का उदय आने से। इसमें गिरने में काल प्रधान है या कर्म का उदय प्रधान है ?
समाधान-उपशान्त कषाय ग्यारहवें गुणस्थान से गिरने के दो कारण हैं, १. मनुष्यभव का क्षय और २. उपशमनकाल का क्षय । इन दोनों में से किसी एक कारण के मिलने पर जीव ग्यारहवें गुणस्थान से गिरता है। प्रथम कारण के मिलने पर जीव ग्यारहवें से चौथे गुणस्थान में गिरता है और दूसरा कारण मिलने पर ग्यारहवें से दसवें में आता है । कहा भी है -उवसंत कसायस्स पडिवादो दुविहो; भवक्खणिबंधणो, उवसामणद्धारवय णिबंधणो चेदि । तत्थ भवक्खएण पडिवदिदस्स सव्वाणि करणाणि देवेसुप्पण्ण-पढमसमए चेव उग्घाडिदाणि। उवसंतो अद्धारवएण पदंतो लोभे चेव पडिवददि, सुहुमसांपराइयगुणमगंतूण गुणंतर गमणाभावा । (१० खं० पुस्तक ६ पत्र ३१७३१८ ) अर्थ-उपशान्तकषाय का प्रतिपात दो प्रकार है-भवक्षयनिबन्धन और उपशमनकालक्षयनिबन्धन । इनमें भवक्षय से प्रतिपात को प्राप्त हुए जीव के देवों में उत्पन्न होने के प्रथम समय में ही सभी करण निजस्वरूप से प्रवृत्त हो जाते हैं। उपशान्तगुणस्थान काल के क्षय से प्रतिपात को प्राप्त होने वाला उपशान्तकषाय जीव लोभ में अर्थात् सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थान में गिरता है क्योंकि उसके सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थान को छोड़कर अन्य गुणस्थान में जाने का अभाव है।
-जें. सं. 27-9-56/VI/ध. ला. सेठी, खुरई १. उपशम श्रेणी में द्वितीय शुक्लध्यान नहीं होता। ( एक मत ) २. ग्यारहवें तथा बारहवें दोनों गुणस्थानों में से प्रत्येक में दोनों ( प्रथम व द्वितीय )
शुक्लध्यान संभव हैं । ( अपर मत )
शंका-सर्वार्थसिद्धि पृ० ४५६ पंक्ति २२ में लिखा है 'वह ध्यान करके पुनः नहीं लौटता है। इस प्रकार उसके एकत्व वितर्क ध्यान कहा गया है।' इसका अर्थ यह हुआ कि एकत्ववितर्क बारहवें गुणस्थान में ही होता है। यह बात पृ० ४५३ के निम्न वाक्यों से विरोध को प्राप्त होती है--'श्रेण्योः शुक्ले इति व्याख्यायते।' क्या ये दोनों वाक्य परस्पर विरोधी हैं ? अर्थात् श्री पूज्यपाद स्वामी के अनुसार ही दोनों श्रेणियों में हो सकते हैं, और उन्हीं के मत अनुसार एकत्ववितर्क शुक्लध्यान बारहवें गुणस्थान में ही हो सकता है ग्यारहवें में नहीं, ऐसा है या नहीं ?
समाधान-सर्वार्थसिद्धि पृ० ४५३ अ० ९ सूत्र ३७ की टीका में जो यह लिखा है 'श्रेण्योः शुक्ले इति व्याख्यायते' अर्थात् दो श्रेणियों में आदि के दो शुक्लध्यान होते हैं ऐसा व्याख्यान करना चाहिये । यह सामान्य कथन है । यह कहने का अभिप्राय यह है कि श्रुत केवलियों के दोनों श्रेणियों से पूर्व धर्म ध्यान होता है । उपशम श्रेणी के चारों गुणस्थानों में प्रथम शुक्लध्यान होता है और क्षीणकषाय गुणस्थान में एकत्ववितर्क नामक दूसरा शुक्लध्यान होता है, यह विशेष कथन है। इसी सूत्र की तत्त्वार्थवृत्ति टीका में लिखा है-"श्रेण्योस्तु द्वे शुक्लध्याने भवतस्तेन सकल तधरस्यापूर्वकरणात्पूर्व धम्यं ध्यानं योजनीयम् । अपूर्वकरणेऽनिवृत्तिकरणे सूक्ष्मसाम्पराये
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org