Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
समाधान-मन दो प्रकार का है द्रव्यमन श्रौर भावमन । उनमेंसे द्रव्यमन पुद्गलविपाकी नामकर्म के उदय से होता है । वीर्यान्तराय औरनोइन्द्रियावरण कर्मकी अपेक्षा रखने वाली आत्मविशुद्धि 'भावमन' है ।
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श्री पूज्यपाद आचार्य ने सर्वार्थसिद्धि में कहा भी है
"मनो द्विविधम्-द्रव्यमनो भाव मनश्चेति । तत्र पुगलविपाकिकर्मोदयापेक्षं द्रव्यमनः वीर्यान्तरायनोइन्द्रियाधरणक्षयोपशमापेक्षा आत्मनो विशुद्धिर्भावमनः ॥ २॥११॥
द्रव्यमन पुद्गल की पर्याय है और भावमन श्रात्मा के ज्ञानगुण की पर्याय है, किन्तु द्रव्यमन के बिना भावमन नहीं हो सकता। कहा भी है
'तत्र भावेन्द्रियाणामिव भावमनस उत्पत्तिकाले एव सत्त्वादपर्याप्तकालेऽपि भावमनसः सत्त्वमिन्द्रियाणामिव किमिति नोक्तमिति चेन्न, बाह्य न्द्रियैरप्राह्यद्रव्यस्य मनसोऽपर्याप्त्यवस्थायामस्तित्वेऽङ्गीक्रियमाणे द्रव्यमनसो विद्यमाननिरूपणस्यासत्त्वप्रसङ्गात् । ( धवल पु० १ पृ० २५९ ) ।
जीव के नवीन भव को धारण करने के समय ही भावेन्द्रियों की तरह भावमन का सत्त्व पाया जाता है, इसलिये जिस प्रकार अपर्याप्तकाल में भावेन्द्रियों का सद्भाव कहा जाता है, उसी प्रकार वहाँ पर भावमन का सद्भाव क्यों नहीं कहा ? नहीं कहा, क्योंकि बाह्यइन्द्रियों के द्वारा नहीं ग्रहण करने योग्य वस्तुभूत मन का अपर्याप्त अवस्था में स्वीकार कर लेने पर, जिसका निरूपण विद्यमान है ऐसे द्रव्यमन के असत्त्व का प्रसंग आ जायगा ।
ज्ञानावरणादि कर्मों से लिप्त आत्मा स्वतः पदार्थों को ग्रहण करने में असमर्थ है। अतः इन्द्रिय आदि के निमित्त से मति आदि ज्ञान की प्रवृत्ति होती है । जैसा कहा भी है
'उपभोक्तुरात्मनोऽनिवृत्त कर्म सम्बन्धस्य परमेश्वरशक्तियोगा विन्द्रव्यपदेशमर्हतः स्वयमर्थान् गृहीतुमसमर्थस्योगोपकरणं लिङ्गमितिकथ्यते ।' ( धवल पु० १ पृ० २६० )
'त विन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम् ।'
इस प्रकार ज्ञानोपयोग रूप भाव में मन बलाधान कारण है ।
बंध के कारण पांच हैं - मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग । 'मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोना बंधहेतवः ॥ ८१ ॥ ( त. सू. )
इन पाँच बन्ध कारणों में योग भी बंध का कारण है । मन, वचन और कायके भेद से वह योग तीन प्रकार का है। कहा भी है
'कायवाङ मनःकर्मयोगः ॥ ६१ ॥ ( त. सु. )
मन, वचन व काय की क्रिया योग है । इस प्रकार मनोयोग प्रकृति व प्रदेशबन्ध का कारण है । 'जोगा पय डिपदेसा ठिदिअभागा कसायदो हुंति '
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