Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
समाधान-समस्तप्रकृतियों का उत्कृष्टस्थितिबंध संक्लेशपरिणामों से होता है। तीर्थकरप्रकृति का बन्ध सम्यग्दृष्टि के होता है । जिस मनुष्य ने दूसरे या तीसरे-नरककी आयुका बन्ध कर लिया है तत्पश्चात् क्षयोपशमसम्यक्त्व उत्पन्न कर केवली के पादमूल में तीर्थंकरप्रकृति बन्धका प्रारम्भ कर दिया है ऐसे मनुष्य के मरण के समय सम्यग्दर्शन छूट जाता है । अतः जब वह मनुष्य मिथ्यात्व के अभिमुख होता है तब उसके उत्कृष्टसंबलेशपरिणाम होता है। अत. उससमय उस अविरतसम्यन्दृष्टि मनुष्य के उत्कृष्टसंक्लेशपरिणामों के कारण तीर्थकर प्रकृति का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है, अर्थात जो कर्मप्रदेश तीर्थकरप्रकृतिरूप से उस समय बँधते है उनमें से अन्तिम निषेक में उत्कृष्टस्थिति पड़ती है।
तीर्थंकरप्रकृति प्रशस्तप्रकृति है और संक्लेश से प्रशस्तप्रकृतियों में अनुभागस्तोक पड़ता है। अतः उत्कृष्ट संक्लेशपरिणामों के समय तीर्थंकरप्रकृति में जघन्यग्रनुभागबन्ध होता है।
-णे. ग. 27-8-64/IX/ ध. ला. सेठी तीर्थकरप्रकृति का स्थितिबन्ध शुभ संक्लेश से शंका-तत्वार्थ सूत्र की सम्यग्दर्शनचन्द्रिका टीका में लिखा है कि तीर्थकर प्रकृति का बंध शुभ-संगलेशपरिणामों से होता है। यहां पर शुभ-संक्लेश-परिणाम का क्या अभिप्राय है?
समाधान-सम्यग्दर्शनचद्रिकाआर्ष ग्रन्थ प्रतीत नहीं होता है। यह ग्रन्थ मेरे पास नहीं है। तीर्थकर प्रकृति शुभ है इसलिये जिन परिणामों से तीथंकरप्रकृति बंधती है वे परिणाम शुभ होते हैं; किन्तु उत्कृष्टस्थितिबंध संक्लेशपरिणामों से होता है अत: उनको संक्लेश कहा है। इस प्रकार 'शुभसंक्लेश' का समन्वय हो सकता है।
~णे. ग. 10-7-67/VII/ र. ला. जैन, तीर्थकर प्रकृति के जघन्य स्थिति बंध के स्वामी शंका-तीर्थकर नामकर्म का उत्कृष्टअनुभागबन्ध तथा जघन्य-स्थितिबन्ध विशुद्धपरिणामों से होता है। कार्मण काययोगी जीवों में तीर्थंकरप्रकृति के जघन्यस्थितिबन्ध का स्वामी दो-गति का जीव कहा है (महाबन्ध पु० २ पृ० ३०३ ) किन्तु उत्कृष्ट अनुभागबन्ध का स्वामी तीनगति का जीव कहा है ( महाबन्ध पु० ४ पृ० १९८) तीर्णकरप्रकृति के जघन्यस्थितिबन्ध व उत्कृष्ट अनुभागबन्ध ये दोनों विशुद्ध परिणामों से होते हैं तो फिर स्वामित्व. प्ररूपण में एकत्र को गति का जीव अन्यत्र तीनगति का जीव ऐसा कहने में सैद्धान्तिक क्या हेतु है ?
समाधान-महाबन्ध पु० २ पृ० ३०३ पर 'तिस्थय दुगवियस्स' अशुद्ध लिखा गया ऐसा प्रतीत होता है जो नीचे टिप्पण से भी ज्ञात होता है कि मूलप्रति में (जो कि ताड़पत्र न होकर कागज प्रति है। लिखा है "दुगवियस्स तित्थय० इस्थि०।" महाबन्ध पुस्तक २ पृ० ३०१-३०२ पर वैक्रियिककाययोगी वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवों में तीर्थंकरप्रकृति के जघन्य स्थितिबंध के स्वामी देव और नारकी दोनों-गति के जीव कहे हैं। महाबन्ध पृ०४ पृ० १९८ पर कार्मणकाययोगी जीवों में तीर्थकरप्रकृति के उत्कृष्टअनुभागबंध के स्वामी तीनोंगति के जीव कहे हैं। इससे यह ज्ञात होता है कि कामणकाययोगी जीवों में तीथंकरप्रकृतिके जघन्यस्थितिबंधके स्वामी नारकी भी हैं जैसा कि पु.२ पृ. ३०१-३०२ पर कहा गया है। किन्तु ३० ३०३ पर लेखक की असावधानी से तीनगति के स्थान पर दो-गति लिख दी गई। यदि ताडपत्र प्रति से मिलान किया जावे तो यह अशुद्धि स्पष्ट हो जावे।
-जे.ग. 3-1-63/IX/ पन्नालाल ..
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