Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार।
अन्तरायकर्म धातिया है, तथापि अघातियाकर्मों की तरह समस्तपने से जीव के गुणों को घातने में वह समर्थ नहीं है। नाम, गोत्र तथा वेदनीय इन तीनों अघातियाकर्मों के निमित्त से ही अन्तरायकर्म अपना कार्य करता है. इस कारण अघातियाकर्मों के भी अन्त में अन्तरायकर्म कहा गया है।
-जें ग. 13-1-72/VII/ र. ला गैन, मेरठ पुद्गलविपाको कर्मों का प्रात्मा पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता, ऐसा एकान्त नहीं है
शंका-शरीर नामकर्म शायद पुद्गल विपाकी प्रकृति है। यदि ऐसा है तो वह जीव में योगशक्ति को जो जीव की पर्याय शक्ति है कैसे उत्पन्न करती है ? उसको जीवविपाको क्यों न माना जाय ?
समाधान-शरीर नामकर्म पुद्गलविपाकी प्रकृति है, क्योंकि इस प्रकृति का कार्य पौद्गलिक शरीर की रचना है, किन्तु पुदगलविपाकी प्रकृतियों का आत्मा पर कुछ भी प्रभाव न पड़ता हो ऐसा एकान्त नियम नहीं है। उत्तम संहनन नामकर्म ध्यान में कारण होता है, इसीलिये उत्तमसंहनन वाले के ही एक अन्तर्मुहूर्ततक ध्यान हो सकता है, हीनसंहननवाले के नहीं हो सकता । तत्त्वार्थसूत्र अध्याय ९ में कहा भी है
"उत्तमसंहननस्यैकाग्रचितानिरोधो ध्यानमांतर्मुहूर्तात् ॥२७॥"
किंतु संहनन नामकर्म का कार्य हड्डियों की निष्पत्ति है, इसलिये संहनननामकर्म पुद्गलविपाकी कहा गया है।
"जस्स कम्मस्स उदएण सरीरे हड्डणिप्पत्ती होदि तं सरीरसंघडणं णाम ।" (धवल १३ पृ. ३६४ )
अर्थ-जिस कर्म के उदय से शरीर में हड्डियों की निष्पत्ति होती है वह शरीरसंहनन नामकर्म है।
यद्यपि शरीर नामकर्म के उदय से प्राहारवर्गणा तैजसवर्गणा व कार्मणवर्गणा के पुद्गलस्कंध शरीररूप परिणत होते हैं तथापि उस शरीर की रचना प्रात्मप्रदेशों में होती है प्रात्मा से भिन्न प्रदेशों में नहीं होती है. इसीलिये शरीर और आत्मा का परस्पर बन्ध होता है। शरीर का और आत्मा का परस्पर बन्ध होने के कारण ही जीव मूर्तभाव को प्राप्त हो जाता है और जीव में योगशक्ति उत्पन्न हो जाती है । कहा भी है
असरीरत्तादो अमुत्तस्स ण कम्माणि, विमुत्तमुत्ताणं पोग्गलप्पाणं संबंधाभावादो। होदु चेण, सिद्धसमाणतावत्तीदो संसाराभावप्पसंगा।" (धवल पु. ६ पृ. ५२)
यदि आत्मा के शरीर न हो तो प्रात्मा अमूर्त हो जायेगी जैसे सिद्धभगवान शरीररहित होने से अमूर्त हैं और अमूर्त आत्मा के कर्मों का बन्ध होना भी सम्भव नहीं है, क्योंकि मूर्त पुद्गल पीर अमूर्त प्रात्मा के सम्बन्ध होने का अभाव है। यदि अमूर्त-आत्मा और मर्तपूदगल इन दोनों का सम्बन्ध न माना जाय तो सभी मारी जीवों के सिद्धों के समान होने की आपत्ति से संसार के अभाव का प्रसंग प्राप्त होगा। अतः शरीर के कारण आत्मा मूर्त हो रही है और प्रात्मा के साथ कर्म व नोकर्म का सम्बन्ध हो रहा है। नवीनकर्म व नोकर्म का सम्बन्ध योग से होता है। अतः शरीर नामकर्मोदय से योग की उत्पत्ति मानने में कोई विरोध नहीं पाता है। शरीर पौदगलिक है. अतः शरीर नामकर्म को पूगलविपाकी कहने में भी कोई हानि नहीं है।
-जे ग. 16-11-72/VII/र.ला. गैन, मेरठ
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