Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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है। उससे अप्रत्याख्यानावरणमाया का अन्तिम अनुभागस्पर्धक विशेषहीन है। उससे अप्रत्याख्यानावरणक्रोध का मन्तिम अनुभागस्पर्धक विशेषहीन है। उससे अप्रत्याख्यानावरणमान का अन्तिम अनुभागस्पर्धक विशेषहीन है। यह अल्पबहुत्व जयधवल पुस्तक ५ पृ० १३३-३४ व पृ०२५७ तथा महाबन्ध पु० ५ पृ० २२१ पर कहा गया है। अतः इन आगमप्रमाणों से सिद्ध है कि अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन इन चारों कषायों के उत्कृष्टस्पर्धक समान नहीं हैं।
-ज.ग.6-6-63/IX/प्रकाशचन्द
अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना-सम्यक्त्वी ही करता है शंका-अनन्तानुबन्धीकषाय को विसंयोजना सम्यग्दृष्टि करता है या मिथ्यादृष्टि ? किस ग्रंथ में यह कथन है ?
समाधान-अनन्तानबन्धीकषाय की विसंयोजना क्षयोपशमसम्यग्दष्टि करता है और किसी भाचार्य के मतानुसार प्रथमोपशमसम्यग्दृष्टि भी करता है, किंतु मिथ्यादृष्टि विसंयोजना नहीं करता है। कहा भी है
"को विसंजोअओ ? सम्माविट्ठी। मिच्छाइट्ठी ण विसंजोएवि ति कुदो णम्वदे ? सम्माविट्ठी वा सम्मा. मिच्छाविट्ठी वा चउवीस विहसिओ होवि त्ति ऐवम्हादो सुत्तादो णव्वदे।" ( जयधवल पु. २ पृ. २१८ )
अर्थ इसप्रकार हैप्रश्न--विसंयोजना कौन करता है ?
उसर-सम्यग्दृष्टि जीव विसंयोजना करता है । प्रश्न-मिथ्यादृष्टि जीव विसंयोजना नहीं करता यह कैसे जाना जाता है ?
उत्तर-'सम्यग्दृष्टि या सम्यग्मिध्यादृष्टिजीव चौबीस प्रकृतिक स्थान का स्वामी है। इस सूत्र से जाना जाता है कि मिथ्यावष्टि जीव अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना नहीं करता है।
इस पार्षवाक्य से स्पष्ट हो जाता है कि अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्क द्रव्यकर्म की विसंयोजना सम्यग्दृष्टिजीव करता है मिथ्याष्टि विसंयोजना नहीं करता है ।
–णे. ग. 12-8-65/V/अ. कुन्दनलाल अनन्तानुबन्धी को विसंयोजना होती है, क्षय नहीं प्रश्न-अनन्तानुबन्धी कषाय की विसंयोजना होती है, क्षय क्यों नहीं होता ?
उत्तर-अनन्तानुबन्धीकषाय का द्रव्य अप्रत्याख्यानावरण आदि कषायरूप संक्रमण करके स्थित रहता है पौर मिथ्यात्व या सासादनगुणस्थान में गिरने पर वही द्रव्य पुनः अनन्तानुबन्धी कषायरूप परिणम जाता है, इसलिये अनन्तानुबन्धीकषाय की विसंयोजना होती है।
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