Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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भ्यक्तित्व और कृतित्व ]
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वार्तिक १२ का अर्थ-"प्रश्न-जो रोगते दुःख होय, तो दुःख को दूर करने के अर्थ वैद्यकशास्त्र का प्रयोग है अकाल मृत्यु के अर्थ नाही ?
उत्तर-ऐसे कहना ठीक नाहीं है, जात वैद्यक-शास्त्र का प्रयोग दोऊ प्रकार करि देखिए है। ताते दुःख होय ताका भी प्रतिकार है बहुरि अकाल मरण का भी प्रतिकार है।"
टीकार्थ-"प्रश्न-दुःख के दूर करने अर्थ वैद्यक का प्रयोग है ?
उत्तर-ऐसा नाहीं, जाते दोय प्रकार करि प्रयोग देखिए है। तहाँ वेदना जनित दुःख होय ताके दूर करने अर्थ भी चिकित्सा देखिए है और वेदना के अनुदय में भी अकालमृत्यु के दूर करने अर्थ चिकित्सा देखिये है । तातें अपमृत्यु सिद्ध होय है ।"
श्री भास्करनन्दि आचार्य भी सुखबोध टीका में कहते हैं-"विषशस्त्रवेदनादिबाह्यविशेषनिमित्तविशेषेणापवत्येते ह्रस्वीक्रियते इत्यपवयं ।" अर्थात् विष, शस्त्र, वेदनादि बाह्य विशेष निमित्तों से आयु का ह्रस्व ( कम ) करना अपवर्त्य आयु है । बाह्य निमित्तों से भुज्यमान आयु की स्थिति कम हो जाती है, यह इसका अभिप्राय है।
श्री विद्यानंदि आचार्य भी कहते हैं-"न ह्यप्राप्तकालस्य मरणामावः खड्गप्रहारादिभिर्मरणस्य दर्शनात्।" अर्थात-अप्राप्त काल अर्थात् जिसका मरणकाल नहीं आया ऐसे जीव के भी मरण का अभाव नहीं है, क्योंकि खड़गप्रहार आदि से मरण देखा जाता है।
सर्वज्ञ के उपदेश अनुसार लिखे गये इन आर्षवाक्यों का यह अभिप्राय है कि जिन कर्मभूमिया मनुष्य तियंचों का मरणकाल नहीं आया है वे जीव भी खड्गप्रहार आदि के द्वारा मरण को प्राप्त होते हए देखे जाते हैं, क्योंकि बाह्य निमित्तों से उनकी आयु-स्थिति कम हो जाती है।
इससे इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि दूसरे जीवों के द्वारा भी आयु-स्थिति कम होकर मरण हो जाता है। प्रतः समयसार गाथा नं० २४५.२५० के कथन का एकान्त नियम नहीं है। यदि सर्वथा ऐसा मान लिया जाय कि एक दूसरे की आयु को नहीं हर सकता तो उपर्युक्त सर्वजवाणी से विरोध आता है, तथा हिंसा का अभाव हो जाता है और हिंसा के अभाव से बंध मोक्ष के अभाव का प्रसंग पा जाता है। बंध मोक्ष के अभाव में धर्मोपदेश निरर्थक हो जाता है ( समयसार गाथा ४६ टीका ) किंतु बंध मोक्ष का अभाव है नहीं, अतः एक जीव के द्वारा दूसरे जीव का घात होता है यह आगम, युक्ति तथा प्रत्यक्ष से सिद्ध है । अतः अकाल मृत्यु नहीं है, ऐसा एकान्त नहीं है।
यदि सर्वथा अकाल मरण न माना जावे तो सिंह, सर्प आदि, शस्त्र-प्रहार आदि से रक्षा का उपाय कौन करता? किन्तु सम्यग्दृष्टि जीव भी इनसे बचने का उपाय करते हुए देखे जाते हैं। सर्प के काट लेने पर उसके विष को दूर करने का उपाय किया जाता है तथा विषभक्षण कर लेने पर वमन आदि करा कर मरण से बचाया जाता है। शस्त्रप्रहार से बचने के लिये श्री अकलंक और निकलंक दोनों भाई विद्यालय से भाग निकले थे, इसपर भी श्री निकलंक का मरण शस्त्रप्रहार द्वारा हुआ और श्री अकलंक छिपकर बच गये।
यदि सर्वथा अकालमरण न माना जावे तो जीवदया का उपदेश निरर्थक हो जायगा। श्री श्रुतसागर. सूरि ने तत्वार्यवृत्ति में कहा है- "अन्यथा दयाधर्मोपदेशचिकित्साशास्त्र च ध्यर्थं स्यात् ।" अर्थ-अकाल मरण को न मानने से दयाधर्म का उपदेश और चिकित्साशास्त्र व्यर्थ हो जायेंगे।
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