Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
View full book text
________________
व्यक्तित्व पौर कृतित्व ]
[ ५७३
जिन स्वामी कार्तिकेय ने तस्थों की अनेकान्तरूप से श्रद्धा तथा सर्वज्ञ वाक्यों की श्रद्धा को शुद्ध सम्बरदर्शन कहा है क्या वे ही स्वामी कार्तिकेय गाया नं० ३२१-३२३ द्वारा सर्वज्ञ के ज्ञान के आधार पर एकान्त नियतिवाद को मानने वाला सम्यग्दष्टि है ऐसा कहते ? अर्थात् एकान्त की श्रद्धा को सम्यग्दर्शन नहीं कह सकते थे। अतः इन तीन गाथाओं के यथार्थ अभिप्राय को समझने के लिये यह देखना होगा कि ये तीन गाथा ३२१-३२३ किस प्रकरण में आई हैं ।
गाथा ३२१-३२३ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा की हैं। इस ग्रन्थ में द्वादश अनुप्रेक्षा का कथन है। प्रथम अनुप्रेक्षा 'अनित्य' है जिसका कथन २० गाथाओं द्वारा किया गया है। वैराग्य उत्पन्न कराने के लिये इस अनित्य अनुप्रेक्षा में धन-यौवन-स्त्री-पुत्र आदि सब पदार्थों को अनित्य दिखलाया है। यदि कोई प्रकरण को न समझकर अनित्य के इस उपदेश द्वारा पदार्थों को सर्वदा क्षणिक मानकर एकान्त क्षणिकवादी मिध्यादृष्टि बन जावे तो इसमें स्वयं उसी का दोष है, क्योंकि उसने प्रकरण के अनुसार प्रतित्य भावना की २० गाथाओंों के यथार्थ अभिप्राय को नहीं समझा। पदार्थ तो नित्या - नित्यात्मक अनेकान्त रूप है । अनित्य भावना का उपदेश देने में स्वामी कार्तिकेय का यह अभिप्राय कभी नहीं हो सकता था कि पदार्थ अनित्य ही है । वैराग्य उत्पन्न कराने के लिये 'अनित्यता' की मुख्यता से अनित्य अनुप्रेक्षा में कथन किया गया है। इसका यह अभिप्राय नहीं है कि पदार्थ सर्वया अनित्य है । इसी प्रकार अन्य अनुप्रेक्षाओं ( भावनाओं ) के सम्बन्ध में जान लेना चाहिये ।
स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा में इन बारह भावनाओं में अन्तिम भावना धर्मानुप्रेक्षा है। इसके प्रारम्भ में गाथा ३०२ व ३०३ के द्वारा सर्वज्ञ का कथन किया गया है, क्योंकि सर्वज्ञ के द्वारा ही धर्मोपदेश दिया गया है। गाथा ३०४ में सागार और अनगार के भेद से दो प्रकार का धर्म बतलाया गया, जिस सागार धर्म के बारह और अनगार के दस भेद कहे हैं। गाया ३०५ २०६ में सागार के बारह भेदों का नामोल्लेख किया गया है। इन बारह भेदों में प्रथम भेद शुद्ध सम्यष्टि है जिसका कथन गाया ३०७-३२७ में किया गया है।
गाथा ३०७ में सम्यग्दर्शन के स्वामित्व का कथन है । गाथा ३०८ व ३०९ में बतलाया है कि कर्म के उपशम क्षय तथा क्षयोपशम से औपशमिक क्षायिक और क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है। गाया ३१० में यह कथन है कि यह जीव असंख्य बार सम्यग्दर्शन, देशव्रत को ग्रहण करके छोड़ देता है।
7
गाथा ३११-३१२ जो पूर्व में उद्धृत की जा चुकी है, में यह स्पष्ट कहा गया है कि श्रुतज्ञान तथा नयों के द्वारा जो अनेकान्तमयी जीव-जीव द्रव्य, आस्रव-बंध-संवर - निर्जरा - मोक्ष-रूप पर्याय इन सात तत्त्वों का श्रद्धान करता है वह शुद्ध सम्यग्दष्टि है। इसके सामर्थ्य से यह भी विदित हो जाता है कि एकान्त नियतिवाद आदि की श्रद्धा करने वाला मिध्यादृष्टि है ।
गाथा ३१३ - ३१६ इन ४ गाथाओं में सम्यग्दृष्टि के भावों का कथन है कि वह मद नहीं करता, मोहविलास को हेय मानता है, गुण ग्रहण करता है, विनय करता है, उसमें साधन अनुराग होता है, देह से जीव को भिन्न जानता है ।
गाथा ३१७ में कहा है कि जो दोष रहित देव को मानता है, सर्व जीवों की दया को उत्कृष्ट धर्म मानता है और निन्य गुरु को मानता है वही निश्चय में सम्यग्दष्टि है। गावा ३१६ में बतलाया है जो दोष सहित देव को, जीव हिंसा आदि को धर्म तथा वस्त्र सहित को गुरु मानता है वह मिथ्यारष्टि है अर्थात् कुदेव, कुधर्म और कुगुरु को मानने वाला मिध्यादृष्टि है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org