Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार !
अकालमरण की सिद्धि
शंका-श्री कुन्दकुन्द भगवान ने समयसार गाथा २४८-२५० में कहा कि कोई किसी की आयु नहीं हर सकता है और न बचा सकता है। इससे सिद्ध होता है कि अकालमरण एक कल्पना मात्र है ?
समाधान–समयसार गाथा २४०-२५० बंध अधिकार की है, जिसमें अध्यवसान को बंध का कारण कहा है। उस अहंकार रूपी अध्यवसान को तथा द्वेष के छुड़ाने के लिए श्री कुन्दकुन्द भगवान ने गाथा २४९-२६९ तक ऐसा उपदेश दिया है। यदि श्री कुन्दकुन्द भगवान का सर्वथा यही आशय रहा होता तो वे भावपाहुड गाथा २५२६ में शस्त्र-प्रहार आदि द्वारा आय-क्षय का क्यों उपदेश देते, अथवा जीवदया का उपदेश भी क्यों देते ? इस सम्बन्ध में विशेष विचार करने के लिये प्रथम श्री अकलंक देव के वाक्य उद्धृत किये जाते हैं, जो निम्न प्रकार है--
"अप्राप्तकालस्य मरणानुपलब्धेरपवर्ताभाव इति चेत; नः दृष्टत्वादाम्रफलादिवत् ॥१०॥ यथा अव. धारितपाककालात् प्राक् सोपायोपक्रमे सत्याघ्रफलादीनां दृष्टः पाकस्तथा परिच्छिन्नमरणकालात् प्रागुदीरणाप्रत्यय आयुषो भवत्यपवर्तः । आयुर्वेदसामर्थ्याच्च ॥ ११॥ यथा अष्टाङ्गायुर्वेद विभिषक् प्रयोगे अतिनिपुणो यथाकालवाताद्य उदयात् प्राक् विरेचनादिना अनुदोर्णमेव श्लेष्मादि निराकरोति, अकालमृत्युव्युदासाथं रसायनं चोपदिशति, अन्यथा रसायनोपदेशस्य वैयर्थ्यम् । न चादोऽस्ति ? अतः आयुर्वेदसामर्थ्यावस्त्यकालमृत्य।
दुःख-प्रतीकारार्थ इति चेत् न ; उभयथा वर्शनात् ॥ १२॥ स्यान्मतम्-दुःखप्रतिकारोऽर्थ आय वेवस्येति ? तन्न; कि कारणम् उभयथा दर्शनात् ।
स्व० पं० पन्नालालजी कृत अनुवाद वार्तिक १० का अर्थ
'प्रश्न-आयबंध में जितनी स्थिति पड़ी है ताका अन्तिम समय आये बिना मरण की अनुपलब्धि है. जाते काल आये बिना तो मृत्यु होय नाहीं, तातै प्रायु के अपवर्तना का कहना नाहीं संभवे है।
समाधान-ऐसा कहना ठीक नाहीं है। जातें आम्रफलादिक की ज्यों, अप्राप्तकाल वस्तु की उदीरणा करि परिणमन देखिये है। जैसे आम का फल पाल में दिये शीघ्र पके है, तैसे कारण के वशतं जैसी स्थिति को लिये आयु बांध्याथा, ताकी उदीरणा करि अपवर्तन होय, पहले ही मरण हो जाय ।
टीकार्थ-"जसे आम के पकने का नियम रूप काल है, तातें पहिले उपाय ज्ञान करि क्रिया का आरम्भ होते संते पान फलादिक के पकनो देखिये है । तैसे ही आयुबंध के अनुसार नियमित मरणकाल ते पहिले उदीरणा के बलते आयु कर्म का अपवर्तन कहिए घटना होय है ।"
वार्तिक ११ का अर्थ-"बहुरि आयुर्वेद कहिये अष्टांग चिकित्सा कहिए रोग दूर करने में उपयोगी क्रिया ताका प्ररूपक वैद्यक शास्त्र ताकी सामर्थ्यते अर्थात् कथन तें तथा अनुभवतें आयु का अपवर्तन सिद्ध होय है।"
टीका अर्थ-जैसे अष्टांग आयुर्वेद कहिये वैद्यशास्त्र ताके जानने में चतुर वैद्यचिकित्सा में अतिनिपुण वाय आदि रोग का काल आए बिना ही पहिले वमन-विरेचन आदि प्रयोगकरि, उदीरणा को नहीं प्राप्त भयेने प्रलेष्मादिक तिनका निराकरण करे हैं। बहरि अकालमरण के प्रभाव के अर्थ रसायन के सेवन का उपदेश करे हैं. प्रयोग करे हैं ऐसा न होय तो वैद्यकशास्त्र के व्यर्थपना ठहरे। सो वैद्यकशास्त्र मिथ्या है नाहीं। वैद्यकशास्त्री उपदेश की अकाल मृत्यु है ऐसा सिद्ध होय है।"
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