Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
मरण और जीवन पर्यायाश्रित हैं ( समयसार गाथा ५६ टीका ) अतः निश्चय से न कालमरण है और न अकाल मरण है । पर्यायाश्रित व्यवहार नय से ही काल और अकाल दोनों मरण हैं । समयसार गाथा ६ में भी कहा है कि निश्चयनय से जीव न प्रमत्त और न श्रप्रमत्त है, क्योंकि ये दोनों अवस्था पर्यायाश्रित हैं, अतः काल या अकालमरण निश्चयनय का विषय नहीं है ।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा ३२१-३२२ पर विचार
जं जस्स जम्मि देते जेण विहारोण जम्मि कालम्मि । णावं जिरगेण णियदं जम्मं वा अहव मरणं वा ॥ ३२१॥
तं तस्स तम्मि देसे तेण विहारषेण तम्मि कालम्मि । को सक्कs वारेदु इंदो वा तह जिणिदो वा ॥ ३२२ ॥
अर्थ - जिस जीव के, जिस देश में, जिस काल में, जिस विधान से जो जन्म अथवा मरण जिनदेव ने नियत रूप से जाना है, उस जीव के, उसी देश में, उसी काल में, उसी विधान से होने वाले उस जीवन या मरण को इन्द्र या जिनेन्द्र कौन टाल सकता है ?
अब प्रश्न यह होता है कि इन दो गाथाओं द्वारा स्वामी कार्तिकेय का 'अनियति निरपेक्ष' एकान्त नियति सिद्धान्त के उपदेश देने का अभिप्राय रहा है या अन्य कुछ अभिप्राय रहा है ?
जैनधर्म का मूल सिद्धान्त अनेकान्त है । इसीलिए सर्वज्ञदेव ने नियति नय और श्रनियति नय इन दो परस्पर विरोधी नयों का उपदेश दिया है ( प्रवचनसार ) श्री सर्वज्ञदेव ने यह भी कहा है कि जो मात्र नियति नय को मानता है वह एकान्त मिथ्यादृष्टि है अर्थात् गृहीत मिथ्यादृष्टि है । भगवान महावीर की दिव्यध्वनि के अनुसार गौतम गणधर ने द्वादशांग रूपी श्रुत की रचना की, जिसके दृष्टिवाद नामक बारहवें अङ्ग में परमतों ( मिथ्या मान्यताओं ) का कथन है, उसमें नियतिवाद परमत का भी कथन है । कहा भी है:
सुतं अट्ठासीदि लक्खपदेहिं ८८००००० अबंधओ अवलेवओ अकत्ता अभोत्ता णिग्गुणो सव्वगओ अणुमेत्तो णत्थि जीवो जीवो चेव अस्थि पुदवियावीणं समुदएण जीवो उप्पज्जद णिच्चेयणो णाणेण विणा सचेयणो णिच्चो अणिच्चो अपेति वदि । तेरासियं नियदिवादं विष्णाणवादं सद्दवावं पहाणवादं दग्ववादं पुरिसवादं च वण्ोदि । ( धवल पु० १ पृ० ११०-१११ )
अर्थ – दृष्टिवाद अङ्ग का सूत्र नामक अर्थाधिकार अठासी लाख पदों के द्वारा जीव अबन्धक ही है, अवलेक ही है, अकर्ता ही है, प्रभोक्ता ही है, निर्गुण ही है, सर्वगत ही है, अणु प्रमाण ही है, जीव नास्तिस्वरूप ही है, जीव अस्ति स्वरूप ही है। पृथ्वी श्रादि पाँच भूतों के समुदाय रूपसे जीव उत्पन्न होता है, चेतना रहित है, ज्ञान के बिना भी सचेतन है । नित्य ही है, अनित्य है, इत्यादि रूप से परमतों का कथन करता है । इसमें त्रैराशिकवाद, नियतिवाद, विज्ञानवाद, शब्दवाद, प्रधानवाद, द्रव्यवाद और पुरुषवाद, परमतों का भी वर्णन है । अर्थात् इष्टवाद अङ्ग के सूत्र अधिकार में 'नियतिवाद' की पर मतों में गणना की है।
दृष्टिवाद अंग में गौतम गणधर ने जिस नियतिवाद को एकांत मिथ्यात्व अर्थात् गृहीत मिथ्यात्व कहा है उस नियतिवाद का स्वरूप निम्न प्रकार कहा गया है
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