Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
उत्तर-जिन जीवों का मरण, शस्त्र-प्रहार आदि बाह्य कारणों के बिना होता है उनका मरण-काल व्यवस्थित है किन्तु शस्त्रप्रहार आदि बाह्य कारणों से जिनका मरण होता है उनका अपमृत्यु काल उत्पन्न होता है। सर्वज्ञदेव ने भी 'काल नय' और 'अकाल नय' इस प्रकार परस्पर विरोधी दो नय कहे हैं। यदि सर्वज्ञदेव इन दोनों में से एक ही नय को कहते तो एकांत मिथ्यात्व का दूषण आ जाता। काल नय, अकाल नय का स्वरूप सर्वज्ञदेव ने इस प्रकार कहा है
'कालनयेन निदाघ दिवसानुसारि पच्यमानसहकारफलवत्समयायत्तसिद्धिः, मकालनयेन कृत्रिमोष्मपच्यमान. सहकारफलवत्समयानायत्तसिद्धिः।( प्रब बनसार)
अर्थ-काल नय से कार्य की सिद्धि ( कार्य का होना ) समय के आधीन होती है। जैसे आम्रफल गर्मी के दिनों में पकता है । अर्थात् काल नय से कार्य अपने व्यवस्थित समय पर होता है । अथवा काल के अनुसार
होता है।
अकाल नय से कार्य की सिद्धि समय के आधीन नहीं होती है। जैसे प्राम्रफल कृत्रिम गर्मी से पका लिया जाता है। अर्थात् अकाल नय से कार्य होने का काल व्यवस्थित नहीं है। जैसे आम्रफल के पकने का काल कृत्रिम गर्मी के द्वारा उत्पन्न कर लिया जाता है । यदि ऐसा माना जावे कि सर्व ही कार्य काल के अनुसार होते हैं तो अकाल नय का उपदेश व्यर्थ हो जायगा । किन्तु सर्वज्ञ के वाक्य व्यर्थ नहीं होते । अतः सर्व ही कार्य काल के अनुसार होते हैं, ऐसा एकान्त नियम नहीं है।
काल और अकालनयों की दृष्टि से श्री सर्वज्ञदेव ने इस प्रकार उपदेश दिया है-न प्राप्तकालस्य मरणाभावः खड्गप्रहारादिभिर्मरणस्य दर्शनात् । प्राप्तकालस्यैव तस्य तथा दर्शन मितिचेत् कः पुनरसौ कालं प्राप्तोऽप
समकालं वा ? प्रथमपक्षे सिद्धसाध्यता, द्वितीयपक्षे खड्गप्रहारादिनिरपेक्षत्वप्रसंग:। सकल बहिःकारणविशेषनिरपक्षस्य मृत्यकारणस्य मृत्युकालव्यवस्थितेः । शस्त्रसंपातादिबहिरंगकारणान्वयव्यतिरेकानुविधायिनस्तस्यापमृत्युकालत्वोपपत्तेः। (श्लोकवार्तिक)
अर्थ-जिनके मरणकाल प्राप्त नहीं हुआ उनके मरणकाल का अभाव है अर्थात् उनका मरण नहीं होता, ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि खड्गप्रहार आदि के द्वारा, मरणकाल प्राप्त न होने पर भी, मरण प्रत्यक्ष देखा जाता है।
शंका-जिसका मरणकाल आ गया है उसी का मरण देखा जाता है ।
प्रतिशंका-मरण काल से क्या प्रयोजन है ? जिसकी आयु पूर्ण हो गई अर्थात् जिसके प्रायु कर्म की स्थिति पूर्ण हो गई उसके मरणकाल से प्रयोजन है या अपमृत्युकाल अर्थात् जिसके आयुकर्म की स्थिति पूर्ण नहीं हुई है उसके मरणकाल से प्रयोजन है ?
शंका का समाधान-प्रथम पक्ष में सिद्धसाध्यता दोष आता है, क्योंकि आयु पूर्ण होने पर कालमरण होता है, यह तो इष्ट है, इसके सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं है । द्वितीय पक्ष में खड्गप्रहार आदि की निरपेक्षता का प्रसंग आ जायगा। जिसका मृत्युकारण सम्पूर्ण विशेष बाह्य कारणों से निरपेक्ष है उसका मृत्युकाल व्यवस्थित ( निश्चित ) है । शस्त्रप्रहार आदि का अपमृत्यु के साथ अन्वय व्यतिरेक का विधान होने से अपमृत्युकाल उत्पन्न होता है।
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