Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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ध० पु० ४ पृ० ३८ पर लिखा है-"मिथ्याइष्टि जीव राशि के शेष तीन विशेषण अर्थात् आहारकसमुद्घात, तैजससमुद्घात और केवलीसमुद्घात संभव नहीं हैं, क्योंकि इनके कारणभूत संयमादिगुणों का मिथ्यादृष्टि के प्रभाव है।" पृ० ३९ से ४७ तक सासादनगुणस्थान से लेकर प्रयोगकेवली गुणस्थान तक के जीवों के क्षेत्र का कथन है। इसमें सासादन, सम्यग्मिध्याष्टि, असंयत सम्यग्दष्टि, अप्रमत्तसंयत आदि के तैजससमुद्घात का कथन नहीं है। मात्र प्रमत्तसंयतगुणस्थान वालों के तैजससमुद्घात का कथन है। प्रमत्तसंयतगुणस्थान भावलिंगी के अर्थात सम्यग्दृष्टि के होता है। मिथ्याष्टि द्रव्यलिंगी के तो प्रथम मिथ्यात्वगुणस्थान होता है।
ध० पु० १० १३१ पर कहा कि सूत्र दो में 'इमानि' इस पद से प्रत्यक्षीभूत भावमार्गणाओं का ग्रहण करना चाहिये । द्रव्य मार्गणाओं का ग्रहण नहीं किया गया। पृ० १४४ पर कहा है “संयमन करने को संयम कहते हैं।" संयम का इस प्रकार लक्षण करने पर द्रव्य-यम ( भाव चारित्र शून्य द्रव्य चारित्र ) संयम नहीं हो सकता है, क्योंकि संयम शब्द में ग्रहण किये गये 'सं' शब्द से उसका निराकरण कर दिया है।' पृ० ३६९ पर कहा है-“सम् उपसर्ग सम्यक् अर्थ का वाची है, इसलिये सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान पूर्वक 'यताः' अर्थात् जो बहिरंग और अंतरंग आत्रवों से विरत हैं उन्हें संयत कहते हैं।" पृ० ३७८ पर कहा है "सम्यग्दर्शन बिना संयम की उत्पत्ति नहीं हो सकती है।"
इस प्रकार धवल ग्रंथ में मात्र द्रव्य संयम की अपेक्षा से कहीं पर भी कथन नहीं किया गया है। अतः प्रमत्तसंयत से सम्यग्दृष्टि संयमी छ? गुणस्थान वाला मुनि ग्रहण करना चाहिये, न कि मिथ्याष्टि द्रव्यलिंगी मूनि । अशुभ तेजस समुद्घात भी प्रमत्तसंयत गुणस्थान में होता है अन्य गुणस्थान में नहीं।
-जं. ग. 5-3-64/IX/स. कु. सेठी समुद्घात शरीर एवं ऋद्धि शंका-आहरक शरीर व आहारक समुद्घात में क्या अन्तर है ? इसी तरह वैक्रियिक ऋद्धि व वैक्रियिक समुद्घात में क्या अन्तर है ?
समाधान --वेदना आदि निमित्तों से कुछ आत्मप्रदेशों का मूल शरीर से बाहर निकलना समुद्घात है । (त. रा. वा० अ०१ सूत्र २० वार्तिक १२ ) अतः ऋद्धिप्राप्त प्रमत्तसंयत मुनि के शंका आदि के उत्पन्न होने पर मूलशरीर से लेकर केवली भगवान के स्थान तक आत्मप्रदेशों का फैलना आहारक समुद्घात है। आहारकशरीर आहार वर्गणाओं से निर्मित एक हस्तप्रमाण समचतुरस्र संस्थान वाला होता है।
विशेष तप से औदारिक शरीर की नाना आकृतियों को उत्पन्न करने की लब्धि वैक्रियिक ऋद्धि है। वैक्रियिक वर्गणामों से जो देव-नारकी जीवों का शरीर बनता है वह वैक्रियिक शरीर है। कहा भी है-"तियंच व मनुष्यों के वैक्रियिक शरीर सम्भव नहीं है, क्योंकि इनके वैक्रियिक शरीर नामकर्म का उदय नहीं पाया जाता। किन्तु औदारिक शरीर विक्रियात्मक और अविक्रियात्मक भेद से दो प्रकार का है। उनमें जो विक्रियात्मक औदारिक शरीर है उसे यहाँ वक्रियिक रूप से ग्रहण करना चाहिए। धवल पु० ९ पृ० ३२८; धवल पु० १ पृ० २९६ )।" धवल पु०१५ पृ० ६४ पर वैक्रियिक शरीर नाम कर्म की उदीरणा ( उदय ) मनुष्य व तियंचों के भी कही है। इन दोनों कथनों में परस्पर विरोध नहीं है, क्योंकि ये दोनों भिन्न-भिन्न अभिप्रायों से लिखे गए हैं। जिस प्रकार देव और नारकियों के सदा वैक्रियिक शरीर रहता है उस तरह तिर्यंच के और मनुष्यों के नहीं होता, इसलिए
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