Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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५५८ ]
[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
विसवेवणरत्तक्षय भय सत्थागहण संकिलेसाणं। आहारस्सासाणं गिरोहणा खिज्जए आऊ ॥२५॥ (भाव प्राभूत )
विष भक्षण, वेदना, रक्तक्षय, भय, शस्त्र, संक्लेश, आहार निरोध, उच्छ्वास निरोध इन कारणों से आयु का क्षय होकर अकाल मरण हो जाता है।
भय तथा संक्लेश आदि के कारण सूक्ष्म ऐकेन्द्रिय जीवों का भी अकाल मरण सम्भव है, अतः तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय दो सूत्र ५३ में उनका उल्लेख नहीं है ।
-जे.ग.25-6-70/VII/का. ना. कोठारी
अकालमरण सत्य है शंका-निश्चय नय में अकाल मरण नहीं होता है फिर अकाल मरण क्यों कहा जाता है ? जिनेन्द्र भगवान के ज्ञानानुसार तो सबका ही मरण होता है ।
समाधान-जन्म और मरण पर्याय की अपेक्षा हैं। निश्चयनय का विषय पर्याय नहीं है। श्री अमृतचन्द्राचार्य ने कहा भी है-"निश्चयनयस्तु, द्रव्याश्रितत्वात् व्यवहारनयः किल पर्यायाधितत्वात् ।" अर्थात् निश्चयनय का विषय 'द्रव्य' है और व्यवहारनय का विषय पर्याय है। श्री देवसेन आचार्य ने भी आलापपद्धति में कहा है।
"णिच्छय ववहारणया मूलभेया णयाण सम्वाणं । णिच्छय साहण हेऊ दम्बयपज्जस्थिया मुणह ॥४॥"
संपूर्ण नयों के निश्चय नय और व्यवहार नय ये दो मूल भेद हैं । निश्चय नय का हेतु ( विषय ) द्रव्यार्थिक नय ( द्रव्य ) है और साधन अर्थात् व्यवहार नय का हेतु पर्यायाथिक नय है ।
इसलिये काल मरण या अकाल मरण दोनों प्रकार का मरण व्यवहारनय का विषय है, निश्चयनय में न काल मरण है और न अकाल मरण है। निश्चयनय की अपेक्षा तो द्रव्य नित्य ध्रव है, परिणमन तो व्यवहारनय का विषय है।
अकालमरण प्रसिद्ध भी नहीं है । श्री कुन्दकुन्द आदि आचार्यों ने अकाल मरण का उपदेश दिया है। जो निम्न प्रकार है
"विसवेयणरत्तक्खयभय सत्यग्गहण संकिलेसेणं । आहारुस्सासाणं णिरोहणा खिज्जएआऊ ॥२५॥ हिम-जलण-सलिलगुरुयरपब्वयतर-रहण-पडणभंगेहिं । रस विज्जजोयधारण अण्णपसंगेहिं विवि हि" ॥ २६ ॥
( श्री कुन्दकुन्द कृत भावपाहुड) "विष शस्त्र वेदनादि निमित्त, विशेषेणापवय॑ते हृस्वीक्रियते । इत्यपवर्त्य अपवर्तनायमित्यर्थः।"
( सुखबोध) "न ह्यप्राप्तकालस्य मरणाभावः खङ्गप्रहारादिभिर्मरणस्य दर्शनात् । शस्त्र संपातादिबहिरंगकारणान्वयव्यतिरेकानुविधायिनस्वस्थापमृत्युकालत्वोपपत्तेः । कस्यचिदायुरुदयंतरंगेहेतो बहिरंग पथ्यपहारावि विच्छिन्नं जीवनस्याभावे प्रसकते तत्संपादनाय जीवनाधानमेवापमृत्योरस्तु प्रतिकारः।" ( श्लोक वातिक)
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