Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ ५४५ समाधान-प्रमत्तसंवत मुनि के मारयान्तिकसमुद्घात के समय भी प्रमत्तसंयत गुणस्थान रहता है। कहा भी है
"मारणांतिकसमुग्घादगदेहि चबुहं लोगाणमसंखेज्जविभागो पोसिदो, माणुसखेतादो असंखेज्जगुणो।" (धवल पु० ४ पृ० १७१)
अर्थ-मारणान्तिक समुद्घातगत उन्हीं प्रमत्तसंयतादिकोंने सामान्यलोक आदि चार लोकों का असंख्यातवां भाग और मनुष्यक्षेत्र से असंख्यातगणा क्षेत्र स्पर्श किया है।
इस आर्ष वाक्य से जाना जाता है कि प्रमत्तसंयत गुणस्थान में भी मारणान्तिक समुद्घात संभव है, किन्तु मरण होने पर प्रमत्तसयत गुणस्थान नहीं रहता, चतुर्थ गुणस्थान हो जाता है।
-ज. ग. 17-4-69/VII/र. ला. जन मारणांतिकसमुद्घात में प्रात्मप्रदेशों का पुनः मूलशरीर में लौटना प्रावश्यक नहीं
शंका-मारणान्तिक समुद्घात में आत्मप्रदेश मूल शरीर को छोड़कर बाहर निकलते हैं तो वापस मूल शरीर में समाजाते हैं क्या ? यदि समाजाते हैं तो मारणांतिक समुद्घात क्या हुआ?
समाधान-मारणांतिक समुद्घात में प्रात्मप्रदेश मूलशरीर को नहीं छोड़ते हुए भी कुछ प्रदेश आगामी उत्पन्न होने के स्थान तक प्रसार करते हैं । मारणान्तिक समुद्घात का काल अन्तर्मुहूर्त है और यह समुद्घात मरण से एक अन्तर्मुहूर्त पूर्व होता है। मारणान्तिक समुद्घात का स्वरूप इस प्रकार कहा है-अपने वर्तमान शरीर को नहीं छोड़ कर ऋजुगति द्वारा अथवा विग्रहगति द्वारा आगे जिसमें उत्पन्न होना है ऐसे क्षेत्र तक जाकर शरीर से तिगुणे विस्तार से प्रथवा अन्य प्रकार से अन्तर्मुहूर्त रहने का नाम मारणान्तिक समुद्घात है। जिन्होंने परभव की आयु बांधली है ऐसे जीवों के मारणान्तिकसमुद्घात होता है। मारणान्तिकसमुद्घात निश्चय से आगे जहाँ उत्पन्न होना है ऐसे क्षेत्र की दिशा के अभिमुख होता है और लम्बाई उत्कृष्टतः अपने उत्पद्यमान क्षेत्र के अन्त तक है। (प. खं. पु० ४ पृष्ठ २६-२७) पायाम की अपेक्षा अपने अपने अधिष्ठित प्रदेश से लेकर उत्पन्न होने के क्षेत्र तक तथा बाहल्य से एक प्रदेश को आदि करके उत्कर्षतः शरीर से तिगुणे प्रमाण जीवप्रदेशों के काण्ड, एक खम्भ स्थित तोरण, हल व गोमूत्र के आकार से अन्तर्मुहूतं तक रहने को मारणान्तिक समुद्घात कहते हैं।'
१. क्योंकि जैसे विग्रहगति अथवा ऋजुगति से जीव अपने आगामी भव में उत्पन्न होने जाता है वहां वह जिस ऋगति अथवा पाणिमुक्ता या लांगलिका या गोमतिका से जाता है। तथैव मरण से अन्तमुहर्त पूर्व भी जीव मारणांतिक समुद्घात में भी उसी मार्ग द्वारा तथा उतने ही समय में उसी ऋजु या विग्रह गति से अपने आगामी जन्म क्षेत्र को जाता है। इस तरह मूल परीर पूर्वस्थान पर रहने से तथा आत्मप्रदेशों के आगामी जन्म स्थान तक पहुंचने से अम्तमहत तक जीव प्रदेश इस पूरी मार्ग की दरी में पड़े रहते हैं। तब अन्तम तक इन आत्मप्रदेशों को देखने पर वे भी काण्ड (ऋजुगति वाले मार्ग में), एक खम्भ स्थित तोरण (एक विग्रह करके गये होतो), हल (दो विग्रह से गये हो तो) अथवा गोमूत्र ( तीन विग्रह से गये हो तो) के आकार वाले होकर अवस्थित रहते हुए नजर आते है। -सम्पादक
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