Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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५४४ ]
[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार
असंख्यातवें भाग क्षेत्र में रहते हैं । वेदना समुद्घात, कषाय समुद्घात और मारणान्तिक समुद्घात पदों की अपेक्षा शुक्ललेश्या वाले जीव चारों लोकों के प्रसंख्यातवें भाग क्षेत्र में रहते हैं ।
इस आगम प्रमाण से यह स्पष्ट हो जाता है कि पीत, पद्म, शुक्ल इन तीनों शुभ लेश्याओं में भी वेदना, कषाय और मारणान्तिक समुद्घात होते हैं, क्योंकि देवों के ये तीनों लेश्या सम्भव हैं ।
- जै. ग. 1-6-72 / VII / र. ला. जैन
मारणान्तिक समुद्घात का विस्तृत स्वरूप
शंका- जीव मृत्यु से पहिले ही भविष्य जन्म की खोज कर आता है। अधिकतर मनुष्य अन्त समय तक बोलते-बोलते मृत्यु को प्राप्त होते हैं। हार्टफेल वाले तो सभी कुछ करते-करते अपनी जीवन लीला समाप्त करते हैं। ऐसी मृत्यु में जीव कैसे दूसरा स्थान ढूँढ़ने जाता है ? यदि माना जाय कि कुछ प्रवेश जाते हैं तो जब पूर्ण रूप से ज्ञान चेतना बनी रहती है तब वह बात भी लागू नहीं होती। कुछ भी बीमारी या असावधानी नहीं देखी जाती । सामायिक या अनेक कार्य करते हुए भी चोला बदल जाता है । इसका क्या कारण है ?
समाधान -- आगम में सात प्रकार का समुद्धात कहा है। मूल शरीर को न छोड़कर तैजस कार्माण के साथ जीव प्रदेशों का शरीर से बाहर निकलने को समुद्घात कहते हैं । इन सात समुद्घातों में एक मारणान्तिक समुद्घात भी है ( गोम्मटसार जीवकांड गाथा ६६६-६६७ ) । अपने वर्तमान शरीर को नहीं छोड़कर ऋजुगति द्वारा अथवा विग्रहगति द्वारा प्रागे जिसमें उत्पन्न होना है ऐसे क्षेत्र तक जाकर, शरीर से तिगुणे विस्तार से अथवा अन्य प्रकार से अन्तर्मुहूर्तं तक रहने का नाम मारणान्तिक समुद्घात है ( धवल पु० ४ पृ० २६ ) । श्रायाम की अपेक्षा अपने-अपने अधिष्ठित प्रदेश से लेकर उत्पन्न होने के क्षेत्र तक तथा बाहुल्य से एक प्रदेश को प्रादि करके उत्कर्षतः शरीर से तिगुणे प्रमाण जीव प्रदेशों के कांड, एक खम्भस्थित तोरण, हल व गोमूत्र के आकार से अन्तर्मुहूर्तं तक रहने को मारणान्तिक समुद्घात कहते हैं । ( धवल पु० ७ पृ० २९९-३०० )
यद्यपि मारणान्तिक समुद्घात में आत्मा के कुछ प्रदेश मूल शरीर से बाहर निकलते हैं, किन्तु उनका तांता मूलशरीर से जुड़ा रहता है अतः उन प्रदेशों के निकलने से सावधानी आदि होने का नियम नहीं है । जैसे वैक्रियिक समुद्घात में आत्मप्रदेशों के मूल शरीर से बाहर निकलने पर भी असावधानी नहीं होती । सभी जीव मारणांतिक समुद्घात करते हों ऐसा नियम नहीं है । बहुभाग मारणान्तिक समुद्घात करते हैं एक भाग जीव मारणान्तिक समुद्घात नहीं करते ( गोम्मटसार जीवकांड गाथा ५४४ की टीका ) मारणांतिक समुद्घात से मरने वाले जीवों के अन्त समय तक पूर्ण सावधानी बनी रहे इसमें कोई विरोध नहीं ।
- जै. ग. 2-5-63 / 1X / मगनमाला
प्रमत्तसंयत भी मारणांतिक समुद्घात करते हैं
शंका- धवल पु० ४ पृ० १६३ सासादन सम्यग्दृष्टिदेव मारणान्तिक समुद्घात करके एकेन्द्रिय को स्पर्श करता है, उस समय उसके सासादन गुणस्थान रहता है, उसी प्रकार प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती मारणान्तिक समुद्रघात करके जिस क्षेत्र को स्पर्श करता है उस समय उसके प्रमत्तसंयत गुणस्थान रहता है या नहीं ?
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