Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार ।
नाराच संहनन का अभाव हो जायगा और वज्रवृषभनाराच संहनन के प्रभाव में मोक्ष के अभाव का प्रसंग आजायगा अतः तीर्थंकर भगवान का शरीर सप्त धातु रहित नहीं होता । इसलिये तीर्थंकर भगवान के सन्तानोत्पत्ति होने में कोई बाधा नहीं आती ।
देवों के युगपत् श्रनेक वैक्रिटिक शरीर
शंका- देव एक साथ कितने प्रकार के आकार वाले शरीर बना सकता है ?
समाधान — देव श्रनेक प्रकार के आकार वाले शरीर एक साथ बना सकता है, क्योंकि देव के पृथक् विक्रिया होती है ।
—जै. ग. 6,13-5-65 / मगनमाला
वैकशरीर कथंचित् इन्द्रियों के प्रगोचर है
शंका- औदारिकशरीर इन्द्रियों से जाना जाता है तब वैक्रियिक आदि शरीर इन्द्रियों से क्यों नहीं जाने जाते ?
-- जै. ग. 20-3-67/ VII / र. ला. जैन
समाधान - " परं परं सूक्ष्मं " सूत्र द्वारा बतलाया है कि औदारिकशरीर से वैक्रियिकशरीर सूक्ष्म है, वैक्रियिक से आहारक शरीर सूक्ष्म है । आहारक शरीर से तेजसशरीर सूक्ष्म है । तैजस से कार्मणशरीर सूक्ष्म है । सूक्ष्म होने के कारण वैक्रियिकशरीर का मनुष्यों के इन्द्रिय गोचर होने का कोई नियम नहीं है । आहारक श्रादि शरीर तो इन्द्रियगोचर नहीं होते । ( रा० वा० पृ० ७२५-७२६ )
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देवों का मूल शरीर भी मध्यलोक में श्राता है
शंका – रा. वा. अध्याय २ सूत्र ४९ वार्तिक ८ में काल के कथन में हिन्दी अनुवादक ने लिखा है"मूलवे क्रियिकशरीर तो वहीं स्वर्ग में रहता तथा उत्तर वैऋियिकशरीर से हो वे पृथ्वी पर पंचकल्याणकादि में आते हैं ।” पृथक् विक्रिया का उपयोग करके उत्तर वंक्रियिकशरीर से ही पृथ्वी पर आने का नियम क्यों है ? वे वेब मूल 'क्रियिकशरीर द्वारा पृथ्वी पर क्यों नहीं आते ?
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जै. ग. 23-1-69/VII / रो. ला. मित्तल
समाधान – उक्त वार्तिक ८ में काल के कथन में श्री अकलंकदेव ने ऐसा नियम नहीं लिखा है, हिन्दी भाषाकार ने ऐसा नियम क्यों लिख दिया ? ज्ञानपीठ से जो राजवार्तिक प्रकाशित हुई है उसकी हिन्दी भाषा में भी ऐसा नियम नहीं है । श्री अकलंकदेव ने तो इस प्रकार लिखा है - " उत्तरवै क्रियिकस्य जघन्य उत्कृष्टश्चान्तमुहूर्तः। तीर्थंकर जन्मनन्दीश्वरार्हदायतनादिपूजासु कथमिति चेत् ? पुनः पुनविकरणात् सन्तत्यविच्छेदः।” उत्तरवैक्रियिक शरीर का जघन्य व उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। तीर्थंकर के जन्म समय नन्दीश्वर पूजा, अर्हत् पूजा आयतन आदि की पूजा में तो अधिक काल लगता है, सो कैसे सम्भव है ? वे देव पुनः पुनः विक्रियाशरीर बनाते रहते हैं जिससे उत्तर वैऋियिकशरीर की संतति का विच्छेद नहीं होता ।
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