Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[ पं० रतनचन्द जैन मुस्तार:
द्विस्थानिक अनुभाग उदय की उत्पत्ति का विधान
शंका --- द्विस्थानिक अनुभाग सर्वत्र कैसे हो जाता है ?
समाधान- जिन्होंने प्रायोग्यलब्धि में पापप्रकृतियों का अनुभागसत्त्व द्विस्थानिक कर दिया है उनके अथवा अनादि एकेन्द्रिय जीवों में, अथवा जिनको एकेन्द्रियों में भ्रमण करते हुए बहुत समय हो गया है ऐसे सादि एकेन्द्रियों के भी द्विस्थानिक अनुभाग होता है ।
- पल 8-9-78 / I / ज. ला. जैन, भीण्डर
अनुभाग- अपकर्षण या उत्कर्षरण होने पर प्रदेशों का ऊपर या नीचे के निषेकों में गमन नहीं होता
शंका- अनुभाग अपकर्षण की क्रिया में अनुभाग से अपकृष्यमाण प्रवेश या वर्ग स्थिति की अपेक्षा अपकृष्ट होता है या नहीं, अर्थात् अनुभाग अवकर्षण को प्राप्त वर्ग ( प्रदेश ) विवक्षित नियेक से, जहाँ कि वह है. हटकर नीचे के निवेकों में जाता है या नहीं ? कृपया स्पष्ट करायें। यह भी बतायें कि अवधिज्ञान के अभाव में तदावरण कर्म के देशघाती स्पर्धक स्वमुख से उदय में आते हैं या परमुख से ?
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समाधान - अनुभाग काण्डकघात तथा अनुभाग- अपकर्षण में अनुभाग कम हो जाता है, पर प्रदेशों का अपकर्षण नहीं होता। आप तो प्रयोगशाला सहायक हैं। मानाकि एक टेबल पर दस जारों में भिन्न-भिन्न तापक्रम का पानी है। यदि किसी यन्त्र के द्वारा अधिक तापक्रम वाले जारों का तापक्रम कम कर दिया जाता है, जो अन्य जार के जल के तापक्रम के सदृश हो, तो क्या उसका जल दूसरे जार के जल में मिल जायगा ?
स्थितिबन्ध में काल की अपेक्षा होती है, अतः निषेकों की ऊर्ध्व रचना होती है। वहाँ स्थिति सह करने
के लिये, अर्थात् स्थिति घटाने के लिये ऊपर के निषेक के द्रव्य को नीचे के निषेक के द्रव्य में मिलाना पड़ता है,
क्योंकि उसकी स्थिति कम है, किंतु अनुभाग में स्पर्धकों में ऊर्ध्वरचना नहीं होती,
क्योंकि यहाँ काल की अपेक्षा
नहीं है। प्रत्येक निषेक में चारों प्रकार के स्पर्धक रहते हैं। यदि लरूप स्पर्धक का जाय तो उसके द्रव्य को ऊपर या नीचे के निषेक में जाने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि उस अस्थिरूप स्पर्धक विद्यमान हैं।
जैसा बाह्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव व भाव मिलता है वैसा ही अनुभाग उदय में भाता है। अन्य स्पर्धकों का द्रव्य स्तिबुकसंक्रमण द्वारा उदयस्पर्धकरूप परिणमन कर जाता है। जब तक देव या नारकी के अविज्ञान के सर्वपातीस्पर्धकों का घात होकर देशपातीरूप से उदय में आगमन होता है तब तक अवधिज्ञान का क्षयोपशम रहता है। देव या नारकी का मरण होने पर सर्वधातियास्पर्धकों का घात रुक जाता है और देशघातियास्पर्धकों के अनुभाग का उत्कर्षण होकर सबंधातिरूप उदय में आने लगता है। प्रत्येक निषेक में चारों प्रकार के अनुभाग के स्पर्धक विद्यमान हैं । फिर अनुभाग के उत्कर्षरण या अपकर्षण होने पर प्रदेशों के ऊपर-नीचे के निषेकों में जाने का कोई प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता ।
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अनुभाग घटकर अस्थिरूप हो निषेक में भी
- पत्राचार 16-8-78 / ज. ला. जैन, भीण्डर
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