Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[पं. रतनचन्द जैन मुख्तार !
श्री राजवातिक अध्याय ९ के प्रारम्भ में भी "अष्टविधविशेषोपचितमृतिः।" अर्थात आठ प्रकार के विशेष पुद्गल परमाणुओं से रचा हुआ मूर्तिक कर्म है ।" ऐसा कहा गया है। जिसप्रकार औदारिकआहारवर्गणाओं से प्रौदारिकशरीर बनता है,क्रियिकआहारवर्गणाओं से वैक्रियिकशरीर बनता है, तेजसवर्गणाओं से तैजसशरीर बनता है. उसी प्रकार ज्ञानावरणरूप कार्मणवर्गणाओं से ज्ञानावरण कर्म की पांच प्रकृतियों का बन्ध होता है. इत्यादि। मतिज्ञानावरण आदि पांच कर्मप्रकृतिरूप कर्मबन्ध का होना प्रकृतिबंध है, उनका उपादान कारण वे ही पुद्गल परमाण हैं जो ज्ञानावरणकर्मरूप परिणमन कर सकें, अन्य पुद्गल परमाणुओं में यह योग्यता नहीं है। पुद्गलद्रव्य की २३ वर्गणाओं में से मात्र कार्माणवर्गणा ही कर्मरूप परिणमन कर सकती है अन्य २२ वर्गणा कर्मरूप परिणमन नहीं कर सकतीं। ऐसा होने पर भी जब तक वे कार्माणवर्गणा जीव से बंध को प्राप्त नहीं होती हैं उस समय तक उनको 'कर्म' संज्ञा प्राप्त नहीं होती है। उसी प्रकार ज्ञानावरणकर्मवर्गणामों के बंध के प्राप्त होने पर ही 'ज्ञानावरणकर्म' संज्ञा होती है, इसलिये प्रकृतिबंध सार्थक है।
-जं. ग. 1-2-68/VII/ध. ला. सेठी, खुरई महास्कन्ध का स्वरूप
शंका-जगव्यापी महास्कन्ध क्या है ? क्या लोक के सभी पुद्गल परमाणुओं के समूह का नाम है या किन्हीं परमाणु विशेष का स्कन्ध इतना बड़ा बना हुआ है ?
समाधान-पुद्गल की २३ वर्गणा हैं । उन २३ वर्गणाओं में से महास्कंध भी एक वर्गणा है। लोक के सभी पुद्गलों का नाम महास्कंध नहीं है, किन्तु विशिष्ट पुद्गल परमाणुओं से महास्कंध बना है । महास्कंध अकृत्रिम तथा अनादि-अनन्त है।
अणुसंखासंखेज्जाणता य अगेज्जगेहि अंतरिया। आहारतेजभासाभण कम्मइयाधुवक्खंधा ॥ ५९४ ॥ सांतरणिरंतरेण य सुण्णा पत्रोयदेहधुवसुण्णा ।
वादरणिगोदसुण्णा सुहुमणिगोदाणभो महाक्खंधा ॥५९५॥ गो.जी. - १. अणुवर्गणा, २. संख्याताणुवर्गणा, ३. असंख्याताणुवर्गणा, ४. अनन्ताणुवर्गणा, ५. पाहारवर्गणा, ६. अग्राह्यवर्गणा, ७. तेजसवर्गणा, ८. अग्राह्यवर्गणा, ६. भाषावर्गणा, १०. अग्राह्यवर्गणा, ११. मनोवर्गणा, १२. अग्राह्यवर्गणा, १३. कार्मणवर्गणा, १४. ध्रुववर्गणा, १५. सांतरनिरंतरवर्गणा, १६. शून्यवर्गणा, १७. प्रत्येकशरीर वर्गणा, १८. ध्र वशून्यवर्गणा, १९. बादरनिगोदवर्गणा, २०. शून्यवर्गणा, २१. सूक्ष्म निगोद-वर्गणा, २२. शून्यवर्गणा, २३. महास्कंध वर्गणा ।
"महखंधदव्वग्गणा केवडिखेत्ते ? लोगे देसूरणे। महाखंधवग्ववग्गणाए केवडियं खेतं फोसिवं ? लोगो देसूणो सव्वलोगो वा।" ( ध० पु० १४ पृ० १४९, १५०)
अर्थ-महास्कन्ध द्रव्यवर्गणा का कितना क्षेत्र है ? कुछ कम सब लोक क्षेत्र है। महास्कन्ध द्रव्यवर्गणा में कितने क्षेत्र का स्पर्शन किया है ? कुछ कम लोकप्रमाण क्षेत्र का और सब लोक का स्पर्शन किया है ।
"बदराद्यपेक्षया बिल्वादीनां स्थूलत्वं, जगद्व्यापिनि महास्कंधे सर्वोत्कृष्टमिति । पुदगलद्रव्यं पुनर्लोकरूप. महास्कंधापेक्षया सर्वगतं, शेषं पुद्गलापेक्षया सर्वगतं न भवति ।" (द्रव्यसंग्रह पृ० ५२ व ७७ )
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