Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
View full book text
________________
५१८ ]
[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
गति नाम कर्म की पिंड प्रकृतियों में से जिस प्रकृति का उदय पाया जाता है उसके अतिरिक्त अन्य तीन गतियों का द्रव्य प्रतिसमय उदयगतिरूप संक्रमण करके उदयरूप निषेक में प्रवेश करता है।
सप्तमनरक के नारकी के गतिके अंतिम समय में अनन्तर अगले निषेक में अनूदयरूप तीन गति के द्रव्य का नरकगतिरूप संक्रमण नहीं होगा, क्योंकि अगले समय में नरकगति का उदय नहीं होगा, किंतु तिथंचगति का उदय होगा। अतः गति के अन्तिमसमय में उदयरूप निषेक से अनन्तर ऊपर के निषेक में जो द्रव्य नरकगति. मनुष्यगति, देवगतिरूप है वह स्तिबुकरांक्रमण द्वारा तिर्यंचगतिरूप संक्रमण कर जायगा और तियंचगतिरूप उदय में आयगा । इसी प्रकार सर्वत्र समझना चाहिये ।
-जं. ग. 12-12-74/VI/ज. ला. जेंन, भीण्डर
शंका-आगाल-प्रत्यागाल का क्या स्वरूप है ?
समाधान-प्रत्येक कर्म बन्धकाल ( बन्ध के समय ) से एक प्रावली ( अचलावली ) काल बीत जाने पर अपकर्षण और उत्कर्षण को प्राप्त होता है। अतः अन्तरकृत होने के पश्चात् जो मिथ्यात्वकर्म बँधता है उसकी आबाधा प्रथम स्थिति और अन्तरायाम इन दोनों के काल से अधिक होती है और अन्तरकरण के समय में जो मिथ्यात्व बंधा था उसका आबाधाकाल भी प्रथमस्थिति और अन्तरायाम से अधिक है; अतः इस नवीन मिथ्यात्वकर्म का अपकर्षण-उत्कर्षण होने के कारण आगाल-प्रति आगाल होता है। यदि नवीन मिथ्यात्वकर्म का बन्ध न होता तो आगाल-प्रतिआगाल न होता, क्योंकि अपकर्षण-उत्कर्षण न होता। यहाँ पर अपकर्षण-उत्कर्षण का नाम आगाल-प्रतिआगाल रखा गया है क्योंकि अन्तरायाम में द्रव्य नहीं दिया जाता है।
-पत्ताधार/9-11-54/ब. प्र. स., पटना
भविष्य के प्रायुबन्ध में उत्कर्षण-अपकर्षण के नियम
शका-उत्कृष्टतः आठ अपकर्षों से आयु का बन्ध होता है। वहां किसी एक अपकर्ष के भीतर विवक्षित समय में आयु का जितना स्थितिबन्ध हो सकता है या नहीं ?
समाधान-किसी भी अपकर्ष के प्रथमसमय में प्रायु का जो स्थितिबन्ध होता है वह ही स्थितिबन्ध उस अपकर्ष के अनन्तर समयों में भी होता है उससे अधिक या हीन स्थिति बन्ध नहीं होता। अपकर्ष के प्रथम समय में प्रायु का जो स्थितिबंध होता है वह तो प्रवक्तव्यबंध कहलाता है, क्योंकि उससे पूर्वसमय में प्रायुबंध नहीं हो रहा था। अनन्तरसमय में यद्यपि स्थितिबंध में हीनाधिकता नहीं हुई तथापि अबाधाकाल प्रतिसमय कम हो रहा है अतः आबाधासहित आयु स्थिति की अपेक्षा स्थिति मंध भी प्रतिसमय कम होता रहता है, किंतु आबाधा रहित आयु स्थितिबंध की अपेक्षा विवक्षित अपकर्ष में हीनाधिकता नहीं होती।
(महाबंध पु. २ पृ. १४५-४६ व पृ. १८२) शंका-एक विवक्षित अपकर्ष में आयु का जितना स्थितिबन्ध है, दूसरे अपकर्ष में स्थितिबन्ध उससे अधिक हो सकता है या नहीं?
समाधान-विवक्षित अपकर्ष में आयु का जितना स्थितिबंध है, दूसरे अपकर्ष में उससे होनाधिक स्थितिबंध हो सकता है, क्योंकि आयु-स्थितिबंध में (असंख्यातगुणवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभाग
समाधान
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org