Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
View full book text
________________
व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ ४८५
श्री कुदकुद तथा श्री अमृतचन्द्र इन दोनों प्राचार्यों ने स्पष्टरूप से यह उल्लेख किया है कि चतुर्गतिरूप संसार कर्म का कार्य है।
-जें. ग. 8-2-73/VII/ सुलतानसिंह निद्रा दर्शनावरण प्रकृतियाँ सामान्य दर्शन को विनाशक हैं
शंका-निद्रा, प्रचला आदि पाँच निद्रा दर्शनावरणकर्म प्रकृति कौन-से दर्शन की घातक हैं ?
समाधान-ये पांचों निद्रा सामान्य दर्शन का विनाश करती हैं।
__ "सगसंवेयणविणासहेदत्तादो एदाओ पंचविहपयडीओ दसणावरणीयं । एदाओ पंच वि पयडीओ देसणावरणीयं चेव; सगसंवेयणविणासकरणादो। णिहाए विणासिदवज्झत्थगहणजणणसत्तित्तादो। ण च तज्जणणसत्ती णाणं, तिम्से दसणप्पयजीवत्तादो।" (धवल पु. १३ पृ. ३५४ व ३५५)
अर्थ—स्वसंवेदन ( अंतचित्तमुखप्रकाश ) के निवास में कारण होने से ये निद्रादि पांचों ही प्रकृतियाँ दर्शनावरणीय हैं । ये पाँचों निद्रा प्रकृतियाँ दर्शनावरणीय ही हैं, क्योंकि वे स्वसंवेदन का विनाश करती हैं। निद्रा बाह्यअर्थ के ग्रहण को उत्पन्न करनेवाली शक्ति की विनाशक है और बाह्यार्थग्रहण को उत्पन्न करनेवाली यह शक्ति ज्ञान तो हो नहीं सकती, क्योंकि वह दर्शनात्मक जीवस्वरूप है।
-नं. ग. 13-1-72/VII/ र. ला. जैन, मेरठ निद्रा के समय कोई भी उपयोग नहीं होता
शंका-जब पांच निद्रा में से अन्यतम निद्रा का उदय आता है तब जो निद्रा आने के पूर्व वाले समय में ज्ञानोपयोग चल रहा था वह टट जाता है या नहीं? यानी किसी भी ( अन्यतर) निद्रा के उदयोदीरणा काल में क्या उस विवक्षित वर्तमान समय का ज्ञानोपयोग टट जाता है क्या ? मेरे हिसाब से तो अत्यधिक शिथिलतादायक तथा दर्शनचेतना की नाशक व प्रमादकी निद्रा का उदय होने पर उस समय प्रवर्तते हुए ज्ञानोपयोग को भी नष्ट कर देती है यानी तोड़ देती है।
समाधान-निद्रा का उदय होने पर दर्शनोपयोग तो होता नहीं। दर्शन पूर्वक होने के कारण ज्ञान भी नहीं होता। (धवल पु० १३ पृ० ३५५)
-ज. ला.जैन, भीण्डर/पल/6-5-80 अन्तराय सबसे अन्त में क्यों कहा? शंका-अन्तरायकर्म सब कर्मों के अन्त में क्यों रखा गया ?
समाधान--यही प्रश्न गोम्मटसार में उठाया गया है और उसका उत्तर श्री नेमिचन्द्र सिद्धांत चक्रवर्ती ने निम्न प्रकार दिया है
घावीवि अधादि वा णिस्सेयं घादणे असक्कादो। णामतियणिमित्तावो विग्धं पडिदं अघादिचरियम्हि ॥१७॥ (गो. क.)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org