Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
View full book text
________________
व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ ४८७
असंयत तिर्यंचों के भी उच्चगोत्र का उदय नहीं
शंका-संयतासंयत तिर्यंचों में उच्चगोत्र भी संभव है, क्योंकि उच्चगोत्र का उदय गुणप्रत्ययिक और भव प्रत्यायिक दो प्रकार का होता है। असंयतसम्यग्दृष्टितिर्यंच के उच्चगोत्र का उदय क्यों नहीं होता, क्योंकि सम्यरवर्शन तो विशेष गुण है, इसके बिना ज्ञान व चारित्र सम्यक्त्व को प्राप्त नहीं होते हैं ?
समाधान-यह ठीक है कि सम्यग्दर्शन भी आत्मा का गुण है और सम्यग्दर्शन ही ऐसी परम पनी छनी है जो अनन्तानन्त संसार स्थिति को काटकर अर्धपुद्गल परिवर्तनमात्र कर देता है, किन्त सम्यग्दर्शन इतना अधिक विशेष गुण नहीं जितना अधिक विशेष संयमगुण है । सम्यग्दर्शन तो चारों गतियों में हो सकता है, किंतु संयम मात्र मनुष्यगति में कर्मभूमिया के हो सकता है तथा संयमासयम कर्मभूमिया-मनुष्य व तिर्यचों के हो सकता है । संयम से निरन्तर असंख्यातगुणीकर्म निर्जरा होती रहती है, किंतु सम्यक्त्व के मात्र उत्पत्तिकाल में ही निर्जरा होती है । इसप्रकार सम्यग्दर्शन से संयम में विशेषता है। इस विशेषता के कारण ही संयतासंयत व संयत जीवों को गुणप्रतिपन्न कहा जाता है । धवल पु १५ पृ. १७३-१७४ पर कहा भी है
___ "उच्चागोदाणमुदोरणा गुणपडिवण्णेसु परिणामपच्चइया, अगुणपडिवणेसु भवपच्चइया । को पुण गुणो ? संजमो संजमासंजमो बा ।" (धवल पु. १५ पृ. १७३-७४ )
उच्चगोत्र की उदीरणा गुणप्रतिपन्न जीवों में परिणाम-प्रत्ययिक और अगुणप्रतिपन्न जीवों में भवप्रत्ययिक होती है। गूण से क्या अभिप्राय है? "गुण से अभिप्राय संयम और संयमासंयम का है।"
यहाँ पर गुण शब्द से सम्यग्दर्शन को ग्रहण नहीं किया गया है। श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने भी 'चारितं खलु धम्मो' वाक्य द्वारा चारित्र को ही धर्म कहा है ।
-ज.ग.29-6-72/IX/रो. ला. जैन
म्लेच्छों व पार्यों के गोत्र शंका-कर्मभूमिज आर्य व म्लेच्छ क्या उच्चगोत्री हैं या नीचगोत्री भी हैं ? समाधान-कर्मभूमिज आर्य उच्च गोत्री हैं । कहा भी है"आर्यप्रत्ययाभिधान-व्यवहारनिबन्धनानां पुरुषाणां सन्तानः उच्चैर्गोनं ।" ( धवल पु. १३ पृ. ३८९)
अर्थ-जो 'आर्य' इसप्रकार के ज्ञान और वचनव्यवहार के निमित्त हैं, उन पुरुषों की परम्परा को उच्च गोत्र कहा जाता है।
इन्हीं शब्दों से यह भी सिद्ध हो जाता है कि म्लेच्छ नीचगोत्री है तथा कहा भी है"न सम्पन्नेभ्यो जीवोत्पत्तौ तद्व्यापारः म्लेच्छराज समुत्पन्नपृथुकस्यापि उच्चर्गोत्रोदयप्रसंगात् ।"
अर्थ-सम्पन्न जनों से जीवों की उत्पत्ति में उच्चगोत्र का व्यापार होता है, यह कहना भी ठीक नहीं है. क्योंकि इसप्रकार तो म्लेच्छ राजा से उत्पन्न हुए बालक के भी उच्च गोत्र का उदय देखा जाता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org