Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
View full book text
________________
व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ ४८६
जिनका दीक्षायोग्य साधु प्राचार है, साधु आचार वालों के साथ जिन्होंने सम्बन्ध स्थापित किया है, तथा जो 'आर्य' इस प्रकार के ज्ञान और वचन व्यवहार के निमित्त हैं, उन पुरुषों की परम्परा को उच्चगोत्र कहा जाता है। तथा उनमें उत्पत्ति का कारणभूत कर्म भी उच्चगोत्र है।
"म्लेच्छभूमिजमनुष्याणां सकलसंयमग्रहणं कथं संभवतीति नाशंकितव्यं विग्विजयकाले चक्रवतिना सहं आर्यखण्डमागताना म्लेच्छराजानां चक्रवादिभिः सह जातवैवाहिकसंबन्धानां संयमप्रतिपत्त रविरोधात् ।"
(लब्धिसार गा. १९५ टोका) __ यहाँ पर यह शंका की गई है, यदि म्लेच्छखण्डवाले मनुष्यों के नीचगोत्र का उदय है तो उनके सकलसंयम कसे सम्भव है ? ऐसी शंका ठीक नहीं है, क्योंकि जो म्लेच्छमनुष्य चक्रवर्ती के साथ प्रार्यखण्ड विष आवे और चक्रवर्ती-आदिक के साथ विवाहादि सम्बन्ध स्थापित कर लिया है, तिनके ऊंचगोत्र का उदय हो जाने से संयम ग्रहण करने में कोई विरोध नहीं आता है। नोट-वर्णव्यवस्था के कारण जो म्लेच्छ हैं उनका यहाँ पर कथन नहीं है ।
-जै. ग. 29-6-72/IX/रो. ला जैन गोत्रकर्म की सूक्ष्मव्याख्या केवलज्ञान-गम्य है शंका-गोत्रकर्म को शास्त्रीय व्याख्या क्या है ? समाधान-जो उच्च और नीच कुल को ले जाता है वह गोत्रकर्म है । कहा भी है"गमयस्युच्चनीचकुलमिति गोत्रम् ।" ( धबल पु. ६ पृ. १३ ) "गमयत्युच्चनीचमिति गोत्रम् ।" ( धवल पु. १३ पृ. २०९)
अर्थात जो उच्च-नीच का ज्ञान कराता है वह गोत्रकर्म है।
सर्वदेव और भोगमिज मनुष्य उच्चगोत्री ही होते हैं। नारक और तियंच नीचगोत्री होते हैं। तथा कर्मभूमिजमनुष्यों में उच्चगोत्र भी होता है और नीच भी होता है । धवल पु. १५ पृ. ६१ पर कहा भी है
'उच्चागोवस्स मिच्छाइट्रिप्पहडि जाव सजोगिकेवलि चरिमसमओ ति उदीरणा। णवरि मस्सोवा मणस्सिणी वासिया उदीरेदि, देवो देवी वा संजदो वा णियमा उदीरेंति, संजवासंजदो सिया उदीरेंदि। णीचागोवस्स मिच्छाइटप्पहुडि जाव संजवासंजबस्स उदीरणा। गवरि देवेसु गस्थि उवीरणा, तिरिक्स-परइएसु णियमा उबीरणा, मण्सेसु सिया उदीरणा।'
अर्ग-उच्चगोत्र की उदीरणा मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगके वली के अन्तिम समय तक होती है। विशेष इतना है कि मनुष्य और मनुष्यनी उसकी कदाचित् उदीरणा करते हैं। देव-देवी तथा संयतजीवों के उच्चगोत्र की उदीरणा नियम से होती है तथा संयतासंयत कदाचित् उच्चगोत्र को उदीरणा करते हैं। नीचगोत्र की उदीरणा मिच्यादृष्टि से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक होती है। विशेष इतना है कि देवों में नीचगोत्र की उदीरणा नहीं होती है। तिर्यंच वनारकियों में नीचगोत्र की उदीरणा नियम से होती है। मनुष्यों में नीचगोत्र की उदीरणा कदाचित् है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org