Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
View full book text
________________
४८४ ]
[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
कर्म प्रात्मा को परिभूमण कराते हैं
शंका-सोनगढ़ से प्रकाशित ज्ञानस्वभाव-ज्ञेयस्वभाव के पृ. ३३४ पर लिखा है-"कर्म आत्मा को परिभ्रमण नहीं कराते।" क्या यह ठीक है?
समाधान-'कर्म आत्मा को परिभ्रमण नहीं कराते' सोनगढ़ वालों का ऐसा लिखना ठीक नहीं है। वि० जैन महानाचार्य श्री अकलकदेव ने तत्त्वार्थ राजवार्तिक में लिखा है
"यथा बलीवर्दपरिभ्रमणापादितारगर्तभ्रान्ति घटीयन्त्रभ्रान्ति जनिक बलीवदंपरिभ्रमणाभावे चारगर्तभान्त्यभावाद घटीयन्त्रभ्रान्तिनिवृत्ति च प्रत्यक्षत उपलभ्य सामान्यतोदृष्टादनुमानाद् बलीवर्दतुल्यकर्मोदयापादितां चतर्गत्यरगर्त-भ्रान्तिं शारीरमानसविविधवेदनाघटीयन्त्र भ्रान्तिनिका प्रत्यक्षत उपलभ्य ज्ञानदर्शनचारित्राग्निनिर्दग्धस्य कर्मण उदयाभावे चतुर्गत्यरगर्तभ्रांत्यभावात् संसारघटीयन्त्र भ्रांतिनिवृत्या भवितव्यमित्यनुमीयते ।"
(त. रा. वा. भाग १ वा. ९ पृ. २) जैसे बैलों के घूमने से घटीयन्त्र का धुरा घूमता है जो घटीयन्त्र को धुमाता है। यदि बैल का घूमना बन्द हो जाय तो धुरे का घूमना बन्द हो जाता है, जिससे घटीयन्त्र का घूमना रुक जाता है। उसीप्रकार कर्मरूपी बैल के उदयरूप चलने पर चतुर्गतिभ्रमणरूप धुरा चक्र लगाने लगता है जिससे अनेक प्रकार की शारीरिक मानसिक आदि वेदनारूप घटीयंत्र घमता है। कर्मोदय की निवृत्ति होने पर चतुर्गति भ्रमण रुक जाता है जिससे संसाररूपी घटीयन्त्र का परिचलन समाप्त हो जाता है ।
"यदुपाजितं चतुर्गतिनामकर्म तदुदयवशेन देवादिगतिषूत्पद्यत इति सूत्रार्थः ॥११८॥ ( पंचास्तिकाय )
पूर्व में बंधे हुए देवादि चतुर्गति नामकर्म के उदय के वश से यह जीव देवादि गतियों में उत्पन्न होता है अर्थात् भ्रमण करता है। इन आर्षप्रमाणों से यह सिद्ध है कि आत्मा कर्म-परतंत्रता के वश से चतुर्गतिरूप संसार में परिभ्रमण करता है। श्री कुंदकुदआचार्य तथा श्री अमृतचन्द्राचार्य ने भी कहा है
कम्म णामसमक्खं स्वभावमध अप्पणो सहावेण । अभिभूय णरं तिरियं णेरइयं वा सुरं कुणदि ॥११८।। (प्रवचनसार )
टीका-यथा खलु ज्योतिः स्वभावेन तेल स्वभावमभिभूय क्रियमाणः प्रदीपो ज्योतिकार्य तथा कर्मस्वभावेन जीवस्वभावमभिभूय क्रियमाणा मनुष्यादिपर्यायाः कर्मकार्यम् ॥११७॥
गाथार्थ-'नाम' संज्ञावाला नाम-द्रव्यकर्म अपने स्वभाव से जीव के स्वभाव का पराभव करके चतुर्गतिरूप मनुष्य, तिर्यंच, नारक अथवा देवपर्यायों को करता है।
इसी बात को श्री अमृतचन्द्र आचार्य दृष्टान्त द्वारा समझाते हैं ।
टीका अर्थ-जैसे ज्योति (लो) अपने स्वभाव के द्वारा तेल के स्वभाव का पराभव करके किया जानेवाला दीपक ज्योति का ( लो का ) कार्य है, उसी प्रकार द्रव्यकर्म अपने स्वभाव के द्वारा जीव के स्वभाव का पराभव करके की जाने वाली चतुर्गतिरूप मनुष्य आदि पर्यायें कर्म के कार्य हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org