Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार ।
समाधान- इसमें दोनों कारण हैं। कर्म का उदय कारण है और उपादान कारण आत्मा है। कर्म का उदय यदि न हो तो कभी भी न्यूनाधिक परिणमन को प्राप्त नहीं होगा ।
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विभाव और बात है । यह तो ज्ञानावरणादिकर्म का इस प्रकार का क्षयोपशम है तत् तरतम भाव से आत्मा का ज्ञानादिक विकास होता है, जितना उदय होता है उतना प्रज्ञान रहता है और जितना ज्ञानावरणादिक कर्म का उदय होगा उतना ही अज्ञान रहेगा। जितना ज्ञानावरणादिक कर्म का क्षयोपशम होगा उतना ही ज्ञान रहेगा । * -समाधानकर्ता : पू० क्षुल्लकवर्णीजी महाराज
- जै. सं. 11-7-57 / ...... / ब्र. रतनचन्द मुख्तार
कर्म कुछ नहीं करते; सर्वथा ऐसा मानना मिथ्या है
प्रश्न - कानजी स्वामी यह कहते हैं, महाराज, ज्ञानावरणादिक कर्म कुछ नहीं करते अपनी योग्यता से ही ज्ञान में कमी- बेसी होती है। क्या यह ठीक है ?
उत्तर - यह ठीक है ? आप ही समझो, कैसे ठीक है । यह तो ठीक नहीं है । कोई भी कहे चाहे, हम तो कहते हैं कि अंगधारी भी कहे तो भी ठीक नहीं है । -समाधानकर्ता : पु० शु० वर्णीजी महाराज
- जै. सं. 11-7-57 |
वेदनीय, श्रायु प्रावि चौदहवें गुरगस्थान तक उदित रहते हैं
शंका- भारतीय ज्ञानपीठ काशी से प्रकाशित श्री सर्वार्थसिद्धि के ३४६-४७ पृष्ठ पर उन प्रकृतियों का उदय, जिनका उदय चौबहवे गुणस्थान में भी रहता है, तेरहवें गुणस्थान तक ही क्यों बताया ?
/ ब्र. रतनचंद मुख्तार
समाधान - एक वेदनीय, मनुष्यायु, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग, श्रादेय, यशः कीर्ति, तीर्थंकर तथा उच्चगोत्र; इन बारह प्रकृतियों का उदय चौदहवें गुणस्थान में भी रहता है, परन्तु वेदनीय व मनुष्यायु की उदीरणा छठ गुणस्थान तक होती है और शेष दस प्रकृतियों की उदीरणा तेरहवें गुणस्थान तक होती है । विशेषार्थ में अनुवादक महोदय की लेखनी के द्वारा इन दस प्रकृतियों के सम्बन्ध में उदीरणा के साथ 'उदय' शब्द भी लिखा गया । यद्यपि उनका ऐसा भाव नहीं था । अनुवादक महोदय से इस सम्बन्ध में मेरी बातचीत हुई, उन्होंने स्पष्ट हृदय से लेखनी की भूल स्वीकार की । श्रागम एक महान् समुद्र है । उसमें अज्ञानता या असावधानी के कारण भूल हो जाना स्वाभाविक है। भूल ज्ञात हो जाने पर भी अपनी बात को पकड़े रखना और भूल को स्वीकार नहीं करना मोक्षमार्ग में उचित नहीं है ।
-जै. सं. 25-7-57/. / ब. प्र. सरावगी, पटना
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नोट- यहां पर स्वयं मुख्तार सा. शंकाकार के रूप में प्रस्तुत हुए हैं तथा समाधाता हैं पूज्य महाविद्वान् सु. गणेत्रप्रसाद वर्णी न्यायाचार्य । अत्युपयोगी जानकर इन्हें यहाँ संकलित किया गया है।
-सम्पादक
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