Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ ४७७ शरीर नामकर्मोदय के कार्य-१. शरीर रचना २. योगोत्पत्ति ३. कर्म नोकर्म संचय
शंका-शरीरनामकर्म के उदय का कार्य आहार तैजस व कार्मणवर्गणाओं को शरीररूप परिणमाना है तथा योग भी शरीर नामकर्मोदय से होता है। शरीर बनने योग्य बहुत से पुद्गलों का संचय भी शरीर नामकर्मोदय से होता है । इसप्रकार शरीर नामकर्म के तीन कार्य हो जाते हैं। क्या यह ठीक है ?
समाधान-एक से अनेक कार्यों का उत्पन्न होना सम्भव है। कहा भी है
अनेककार्यकारित्वं न चैकस्य विरुध्यते ।
दाहपाकादिहेतुत्वं दृश्यते हि विभावसोः ॥२८॥ ( त. सा. अ. ६ ) एक ही अनेक कार्यों को करने वाला हो, इसमें विरोध नहीं है, क्योंकि एक ही अग्नि गर्मी तथा भोजन पकाना आदि कार्यों का कारण देखी जाती है।
"एकस्यानेककार्यदर्शनादग्निवत् । यथाऽग्निरेकोऽपि विक्लेदनभस्माङ्गारादिप्रयोजन उपलभ्यते ।"
( सर्वार्थसिद्धि ९ । ३ )
अग्नि एक है तो भी उसके विक्लेदन भस्म और अंगार आदि अनेक कार्य उपलब्ध होते हैं।
अनेक क्रियाकारित्व सिद्धान्त के अनुसार एक ही शरीर नामकर्मोदय से भिन्न-भिन्न तीन कार्यों का होना सम्भव है, किन्तु इसका मुख्य कार्य शरीर की रचना है ।
"यदुदयादात्मनः शरीरनिर्वृत्तिस्तच्छरीरनाम ।" ( सर्वार्थसिद्धि ८।११) जिसके उदय से प्रात्मा के शरीर की रचना होती है वह शरीर नामकर्म है ।
"जस्स कम्मस्स उवएण आहारवग्गणाए पोग्गलक्खंधा तेजकम्मइयवग्गणपोग्गलक्खंधा च सरीरजोग. परिणामेहि परिणदा संता जीवेण संबझंति तस्स कम्मक्खंधस्स सरीरमिदि सण्णा। जदि सरीरणाम ण होज्ज, तो तस्स असरीरत्तं पसज्जदे असरीरत्तादो अमृत्तस्स ण कम्माणि विमुत्तमुत्ताणं पोग्गलप्पाणं संबंधाभावादो।" (घवल पु. ६ पृ. ५२ )।
जिस कर्मोदय से आहारवर्गणा के पुद्गलस्कन्ध तथा तैजस व कार्मणवर्गणा के पुद्गलस्कन्ध शरीरयोग्य परिणामों के द्वारा परिणत होते हुए जीव के साथ सम्बद्ध होते हैं, उस कर्मस्कन्ध की शरीर यह संज्ञा है। यदि शरीर नामकर्म जीव के न हो, तो जीव के अशरीरता का प्रसंग आता है। शरीररहित होने से अमूर्त प्रात्मा के कर्मों का होना सम्भव नहीं है, क्योंकि मूर्तपुद्गल और अमूर्त आत्मा के सम्बन्ध होने का अभाव है।
(धवल पु० ६ पृ० ५२) श्री धवलसिद्धान्तग्रंथ के इस कथन से यह स्पष्ट है कि शरीर के कारण ही आत्मा का कर्मों से सम्बन्ध होता है । इसलिये शरीर नामकर्मोदय के कारण जीव में कर्मग्रहणशक्ति अर्थात् योग होता है । श्री नेमिचन्द्र सिद्धांत चक्रवर्ती आचार्य ने कहा भी है
पुग्गलविवाइ बेहोवयेण मणवयणकायजुत्तस्स । जीवस्स जाह सत्ती कम्मागमकारणं जोगो ॥२१६॥ (गो. जी.)
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