Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
४८० ]
जिसको दूर करने के लिये बाह्यपरिग्रह की आवश्यकता हो । जयधवल पुस्तक १ पृ० ५७ पर भी कहा है कि 'कर्मों के कार्यभूत बाल, यौवन और राजादि पर्याय है ।' राजा के बाह्यपरिग्रह अधिक होता जिसको कर्म का कार्य बतलाया है । यदि मात्र मूर्च्छा का फल बाह्यपरिग्रह मान लिया जावे तो दरिद्री पुरुष के मूर्च्छा तो बहुत है, किंतु उसके बाह्यपरिग्रह का प्रभाव है, अतः इसप्रकार की मान्यता में व्यभिचार प्राता है । इसप्रकार पं० फूलचन्दजी की मान्यता उपर्युक्त आगम के अनुकूल नहीं है ।
बुढ़ापा एवं कमजोरी के कारणभूत कर्म
शंका- बुढ़ापा लाना किस कर्मप्रकृति का कार्य है ? शरीर में शिथिलता आदि कमजोरी किस प्रकृति के कारण होती है ?
समाधान - असातावेदनीय तथा नामकर्म के कारण बुढ़ापा आता है । उपघात नामकर्म से शिथिलता आदि प्रती
I
- जै. ग. 19-12-66 / VIII / र. ला. जैन
- जै. ग. 28-11-63 / IX / र. ला. जैन, मेरठ
जीव विपाकी पुद्गल विपाकी
शंका- तेजस शरीर औदारिक तथा वैक्रियिक आदि शरीरों को कान्ति में निमित्त होता है और आदेयप्रकृति से भी शरीर में प्रभा और कान्ति होती है तो फिर तंजस शरीर और आदेयप्रकृति में क्या अन्तर है ? आदेयप्रकृति जीवविपाकी है फिर शरीर में कैसे काम करती है ?
समाधान - औदारिक, वैक्रियिक और आहारकशरीर में दीप्ति करने वाला तैजस शरीर है। (राजवार्तिक अ० २ सूत्र ३६ वार्तिक २ सूत्र ४९ वार्तिक ८ ) किंतु जिस कर्म के उदय से जीव के बहुमान्यता उत्पन्न होती है, वह आदेय नामकर्म है | क्योंकि आदेयता, ग्रहणीयता और बहुमान्यता ये तीनों शब्द एक अर्थ वाले हैं ( धवल पु० ६ १० ६५ ) इसप्रकार आदेय प्रकृति शरीर में दीप्ति का कारण नहीं है, किन्तु जीव की बहुमान्यता में कारण है । जीव विपाकी भी है, क्योंकि उसका कार्य जीव की बहुमान्यता में हो रहा है, शरीर में कोई कार्य आप्रकृति से नहीं होता है ।
- जै. ग. 1-2-62/VI / मू. घ. छ. ला.
विग्रहगति में उदय
शंका - जबकि विग्रहगति में शरीर ही नहीं है तो वहाँ पर स्थिर अस्थिर, शुभ अशुभ का उदय क्या काम करता है ?
समाधान - विग्रहगति में उक्त प्रकृतियों का अव्यक्त उदयरूप परघातप्रकृति का अव्यक्त उदय होता है । ( धवल पु० ६ पृ० ६४ ) ।
का उदय है ?
निन्दा का कारणभूत कर्म
शंका- प्राणी दूसरे प्राणी की निन्दा किस कर्म के उदय से करता है ? निम्बक के कौन से कर्म
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श्रवस्थान रहता है जैसे सयोगकेवली के
- जै. ग. 8-2-62/VI / मू. च. छ. ला.
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