Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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ध्यक्तित्व और कृतित्व ]
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स्व प्रौर पर को ग्रहण करने वाले परिणाम विशेष को उपयोग कहते हैं। वह उपयोग ज्ञानमार्गणा और दर्शनमार्गणा में अन्तर्भूत नहीं होता है, क्योंकि ज्ञान और दर्शन दोनों के कारणरूप ज्ञानावरण और दर्शनावरण के क्षयोपशम को उपयोग मानने में विरोध आता है अत: उपयोग की अपेक्षा एक जीव में एक काल में एक ही उपयोग हो सकता है । युगपत् दो उपयोग नहीं हो सकते हैं । कहा भी है
एक्के काले एक्कं गाणं, जीवस्स होदि उवजुत्तं ।
गाणा-णाणाणि पुणो, लन्धि-सहावेण वुच्चंति ॥२६०॥ ( स्वामिकातिकेयानुप्रेक्षा) टीका-"जीवस्यात्मनः एकस्मिन् काले एकस्मिन्नेव समये एकं ज्ञानम् एकस्यैवेन्द्रियस्य ज्ञानं स्पर्शनादिजम् उपयुक्त विषयग्रहणव्यापारयुक्तम् अर्थग्रहरणे उद्यमनं व्यापारणम् उपयोगि भवति । यदा स्पर्शनेन्द्रिय ज्ञानेन स्पर्शी विषयो ग्रह्यते तवा रसनादीन्द्रिय जानेन रसादिविषयो न गृह्यते इत्यर्थः । एवं रसनादिषु योज्यम् । तहि अपरेन्द्रियाणां ज्ञानानि तत्र दृश्यन्ते तत्कथमिति चेबुच्यते । पुनः नाना ज्ञानानि अनेक प्रकार ज्ञानानिस्पर्शनाद्यनेकेन्द्रियज्ञानानि लब्धिस्वभावेन अर्थग्रहण शक्तिलग्धिाभः प्राप्तिः तत्स्वभावेन तत्स्वरूपेण उच्यन्ते कथ्यन्ते ॥२६०॥"
जीव के एक समय में एक ही ज्ञानोपयोग होता है, किन्तु लब्धिरूप से एक समय में अनेक ज्ञान कहे हैं। जिस समय स्पर्शन इन्द्रिय विषय ग्रहण में उपयुक्त है उस समय जीव को स्पर्श का ही ज्ञान होगा, उस समय रसनादि इन्द्रियों के द्वारा रस प्रादि का ग्रहण नहीं होता है। यही क्षायोपशमिक दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग के सम्बन्ध में है।
वंसणपुव्वं गाणं, छत्मत्यागंण दोष्णि उवउग्गा । जुगवं जह्मा केवलिणाहेजुगवं तु ते दोवि ॥४४॥ ( वृहद द्रव्यसंग्रह)
छद्मस्थ जीवों के दर्शन पूर्वक ज्ञान होता है। अर्थात् ज्ञान होने में दर्शन कारण होता है। यहां पर पूर्व का अर्थ कारण है, क्योंकि 'पूर्व निमित्त कारणमित्यनान्तरम् ।' ऐसा श्री पूज्यपाद आचार्य का वाक्य है । छद्मस्थों के दर्शन पूर्वक ज्ञान होता है इसलिये छद्मस्थों के दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग ये दोनों उपयोग युगपत् नहीं हो सकते अर्थात् ये दोनों उपयोग क्रम से होंगे, किन्तु केवली भगवान् के ये दोनों उपयोग युगपत होते हैं, क्योंकि केवली भगवान के दर्शन पूर्वक ज्ञान नहीं होता है ।
छयस्थों के दर्शनावरणकर्म का और ज्ञानावरण का क्षयोपशम तो एक साथ रहता ही है, किंतु देशवातियास्पर्धकों के उदय के कारण दर्शनोपयोग व ज्ञानोपयोग युगपत् नहीं होते हैं, किन्तु क्रम से होते हैं। समय ज्ञानावरणकर्म का क्षयोपशम तो रहता है, किन्तु अर्थग्रहण व्यापार नहीं होता है। इसी समय दर्शनावरणकर्म का क्षयोपशम तो होता है, किंतु अर्थ ग्रहण के लिये व्यापाररूप उपयोग नहीं होता है ।
ज्ञानोपयोग के समय यदि दर्शनावरणकर्म का क्षयोपशम भी न रहे तो कालानुयोगद्वार में जो अचक्षुदर्शन का काल अनादि-अनन्त कहा है उससे बाधा आ जायगी। इसीप्रकार दर्शनोपयोग के समय यदि ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम न रहे तो कुमति व कुश्र तज्ञान का काल अनादि-अनन्त कहा है उससे बाधा आ जायगी।
क्षयोपशम अर्थात् लब्धि की अपेक्षा ज्ञान व दर्शन के काल का कथन धवल पु०७ में है और उपयोग की अपेक्षा काल का कथन जयधवल पु० १ गाथा १५ से २०; पृष्ठ ३३०-३६२ तक है।
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