Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
View full book text
________________
व्यक्तित्व और कृतित्व ।
[ ४५१
"जीवं परतन्त्रीकुर्वन्ति, स परतन्त्रीक्रियते वा यस्तानि कर्माणि ।" ( आत परीक्षा पृ० २४६ )
अर्थ-जो जीव को परतन्त्र करते हैं अथवा जीव जिनके द्वारा परतन्त्र किया जाता है उन्हें कर्म कहते हैं ।
कर्मके आस्रव व बंध के कारणभूत जो भी आत्म-परिणाम हैं वे विभावभाव हैं और विभावभाव बिना कर्मोदय के नहीं हो सकते हैं। अतः नवीनबंध के कारणभूत मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये पूर्वोपाजित कर्मोदय से ही होते हैं, अन्यथा नहीं हो सकते । यदि मिध्यात्वआदि भाव-कर्मोदय बिना हो जाये तो ये जीव के स्वभावभाव हो जायेंगे, किन्तु ये स्वभावभाव नहीं हैं, क्योंकि कर्मों के क्षय होने पर इनका भी अभाव हो जाता है।
पौद्गलिककर्मबंध के प्रभाव से अमूर्तिक पात्मा भी मूर्तिक हो जाता है।
अनादिनित्यसम्बन्धात्सह कर्मभिरात्मनः । अमूर्तस्यापि सत्यैक्ये मूर्तत्वमवसीयते ॥१७॥ बन्ध प्रति भवत्यैक्यमन्यो न्यानुपवेशतः । युगपत् प्रावितस्वर्ण रौप्यवज्जीवकर्मणोः ॥१८॥ तथा च मूर्तिमानात्मा सुराभिभवदर्शनात् । न ह्यमूर्तस्य नभसो मदिरा मदकारिणी ॥१९॥ ( तत्त्वार्थसार पंचमाधिकार )
अर्थ-कर्मों के साथ अनादिकालीन नित्यसम्बन्ध होने से आत्मा और कर्मों में एकत्व हो रहा है। इसी एकत्व के कारण अमूर्तिक-मात्मा भी मूर्तिक हो जाता है । जिसप्रकार एक साथ पिघलाये हए सुवर्ण और चांदी का एक पिण्ड बनाये जाने पर परस्पर प्रदेशों के मिलने से दोनों में एक रूपता होती है उसी प्रकार बन्ध की अपेक्षा जीव और कर्मों के प्रदेशों के परस्पर मिलने से दोनों में एकरूपता होती है। आत्मा के मूर्तिक मानने में एक युक्ति यह भी है कि उसपर मदिरा का प्रभाव देखा जाता है, इसलिये आत्मा मूर्तिक है, क्योंकि मदिरा अमूर्तिक आकाश में मद को उत्पन्न नहीं करती।
जिस जीव के नरकायु का सत्त्व है वह अणुव्रत या महाव्रत धारण नहीं कर सकता है। ( इससे यह सिद्ध होता है कि उदय व बन्ध (या सत्त्व ) भी आत्मा को प्रभावित करता है।)
-#. ग. 27-7-72/IX/ र. ला. जैन, मेरठ
ध्र वोदयी के नाम शंका-१४८ कर्म प्रकृतियों में से कुल प्रचोदयी प्रकृतियाँ कितनी हैं ? नाम व संख्या लिखें।
समाधान-पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, पाँच अन्तराय, कार्मण, तेजसशरीर, वर्णादि ४, अगुरुलघु, शुभ, अशुभ, स्थिर, अस्थिर और निर्माण ये २६ ध्रुवउदयी प्रकृतियाँ हैं ।
-पत्राचार 6-5-80/ ज. ला. जन, भीण्डर
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org