Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
समाधान-जीव के परिणामोंका निमित्त पाकर, नानाप्रकार के अनुभाग व स्थिति को लेकर अनेककर्म प्रतिसमय जीवके साथ बंधते हैं। कहा भी है-'जीव परिणाम हे कम्मत्त प्रग्गला परिणमंति।' (समयसार गाथा ८०)। चूकि जीव के परिणाम का निमित्त पाकर कर्म बंधते हैं अतः जीव के परिणाम का निमित्त पाकर उन कर्मों का संक्रमण, स्थिति व अनुभाग अपकर्षण-उत्कर्षण व खंडन होता है। आत्मा के शुभ या शुद्धपरिणामों के निमित्त से जब पूर्वबंधे हुए कर्मों के स्थिति व अनुभाग का अपकर्षण व खंडन होकर स्थिति व अनुभाग अतिअल्प रह जाता है अथवा जब कर्म का सर्वसंक्रमण हो जाता है उससमय उस कर्म का स्वमुखउदय नहीं होता अथवा पूरा फल नहीं होता, कर्म की यह अवस्था 'कर्म का कटना' कहलाती है। यह बात सत्य है जो कर्म बंध गया, वह फल अवश्य देगा, किन्तु फल हीनाधिक हो सकता है अथवा कर्म स्वमुख फल न देकर परमुख फल दे सकता है। बिना फल दिये कोई भी कर्म निर्जरा को प्राप्त नहीं होता ( कषायपाहुड-जयधवल पु० ३ पृ० २४५)।
-जं. सं. 9-10-58/VI/ इ. से. जैन, मुरादाबाद
कर्म फल दिये बिना नष्ट नहीं होता शंका-(अ) कर्म-शुभ अथवा अशुभ-क्या उदय में आकर बिना फल दिये भी नष्ट हो जाते हैं और यदि ऐसा है तो किस प्रकार व क्यों ?
शंका-(ब) क्या द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव का संयोग न मिलने पर कर्म उदय में आकर भी बिना फल दिये नष्ट हो जाता है ?
समाधान-सर्व प्रथम 'उदय' के लक्षण का विचार किया जाता है-कम्मेण उदयो कम्मोक्यो, अपक्वपाचाणाएविणा जहाकाल जणिवो कम्माणं द्विदिक्खएण जो विवागो सो कम्मोदयोत्ति भण्णदे । सो वुण खेत्त-भवकाल-पोग्गल-ट्विी विवागोवय त्तिएदस्सगाहापच्छद्धस्स समुदायत्यो भवदि । कुबो, खेत्तभवकालपोग्गले अस्सिऊण जो सकियो उविण्णफलक्खंध परिसडणलक्खणो सोदयोत्ति सुक्तस्थावलंबणादो।-(जयधवल, वेदक अधिकार ) भावार्थ-कर्म के द्वारा उदय को कर्मोदय कहते हैं। अपक्वपाचन के बिना यथाकालजनित स्थितिक्षय से कर्मों के विपाकको कर्मोदय कहते हैं। वह कर्मोदय क्षेत्र, भव, काल और पुद्गलद्रव्य के प्राश्रय से स्थिति के विपाकरूप बोला कर्म उदय में आकर अपना फल देकर झड़ जाते हैं। इसको उदय या क्षय कहते हैं। इसीप्रकार कषायपाहड गाथा ५९ में कहा है
खेत्त-भव-काल-पोग्गल-द्विदिविवागोदय खयदु।
यहां 'क्षेत्र' पद से नरकादि क्षेत्र, 'भव' पद से जीवों के एकेन्द्रियादि भवों का, 'काल' पद से शिशिर, बसन्त आदि काल का प्रथवा बाल, यौवन, वार्धक्य आदि कालजनित पर्यायों का और 'पूदगल' शब्द से गध. ताम्बल-वस्त्र-आभरण आदि इष्ट-अनिष्ट पदार्थों का ग्रहण करना चाहिए। इस कथन का सारांश यह है कि व्या. क्षेत्र, काल, भव आदि का आश्रय लेकर कर्मों का उदयरूप फल विपाक होता है।
इसप्रकार उदय का लक्षण करने पर (अ) शंका का स्वतः समाधान हो जाता है कि कर्म उदय में आकर बिना फल दिए नष्ट नहीं होता । शंका (ब) का भी समाधान हो जाता है कि द्रव्य, क्षेत्र काल और भव का
कल संयोग न मिलने पर उत्तरकर्मप्रकृति स्वमुख से उदय में नहीं आती, किन्तु स्तिबुकसंक्रमण द्वारा उदयरूप
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