Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार ।
व उदय से उत्पन्न होती है । ( १० ख० पु० ९।३१६ ) अघादि कम्माणमुदएण तप्पाओग्गेण जोगुप्पतीदो। योग की उत्पत्ति तत्प्रायोग्य अघातिया कर्म के उदय से होती है। जदि जोगो वीरियंतराइय खओवसम जणिदो तो सजोगिम्हि जोगाभावो पसज्जदे ? उवयारेण खओवसमियं भाव पत्तस्स ओवइयस्स जोगस्स तत्थामावविरोहावो। प० ख० पु०७।१६। यदि योग वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होता है तो सयोगकेवली में योग के अभाव का प्रसंग आता है ? नहीं आता, क्योंकि योग में क्षायोपशमिकभाव तो उपचार से माना गया है। असल में तो योग प्रौदयिकभाव ही है और प्रौदयियोग को सयोगके वली में प्रभाव मानने में विरोध आता है।
प्रयोगकेवली के भी मनुष्यगति असिद्धत्व प्रादि भाव पाए जाते हैं और ये भाव आगम में औदयिकभाव कहे गए हैं। गतिकषायलिङ्गमिथ्यादर्शनाज्ञानासंयतासिद्धलेश्याश्चतुश्चतुस्व्यंककककषड्भेदाः। मो० शा० अ० २॥ सू०६। गति चार, कषाय चार, वेद तीन, मिथ्यादर्शन एक, अज्ञान एक, असंयत एक, असिद्ध एक, लेश्या छह ये इक्कीस औदयिक भाव हैं। यह कथन औपचारिक भी नहीं है। कर्मोदय के कारण सिद्धत्व भाव और ऊर्ध्वगमन स्वभाव का घात पाया जाता है अतः प्रयोगकेवली भी कर्मोदय के प्रभाव से रहित नहीं है।
सिद्ध भगवान के कर्मोदय नहीं अतः वे कर्मोदय के प्रभाव से रहित हैं।
-जं. सं. 15-11-56/VI/ दे. च. (१) अचेतन कर्म भी फल देते हैं। ऐसी भगवान की वाणी है
(२) कर्म जीव के स्वभाव का पराभव करता है-"कुन्दकुन्द" शंका-कर्म तो अचेतन हैं वे फल कैसे दे सकते हैं ? मात्मा स्वयं अपनी भूल से अपने आप सुखी, रागी, दृषी होय है।
समाधान-श्री अमितगतिश्रावकाचार में इसीप्रकार की शंका उठाकर उसका समाधान किया गया है, जो निम्न प्रकार है
सत्त्वेऽपि कतुं न सुखादिकार्य, तस्यास्ति शक्तिर्गतचेतनत्वात् । प्रवर्तमानाःस्वयमेव दृष्टाः, विचेतनाः क्वापि मया न कार्ये ॥७॥५३॥ विलोकमानाः स्वयमेव शक्ति, विकारहेतु विषमद्यजाताम् । अचेतनं कर्म करोति कार्य, कथं वदंतीति कथं विदग्धाः ॥७६१॥ यनिशेषं चेतनामुक्तमुक्त, कार्याकारि ध्वस्तकार्यावबोधः।
धर्माधर्माकाशकालादि सर्व, द्रव्यं तेषां निष्फलत्वं प्रयाति ॥७॥६३॥ अर्थ-प्रश्न-जीव विष सुख-दुःखरूप कार्य करने की शक्ति कर्म में नहीं है, क्योंकि कर्म अचेतन है। अचेतन स्वयं कोई कार्य करता हुआ दिखाई नहीं देता ?
उत्तर-विष व मदिरा अचेतनपदार्थ हैं, किन्तु उनमें विकार करने की शक्ति पाई जाती है। फिर ऐसा कौन चतुर पुरुष होगा जो अचेतनकर्मों में कार्य करने की शक्ति को न माने ? जो पुरुष चेतनरहित अर्थात् अचेतनटाको सर्वथा कार्य का करने वाला नहीं मानते उनके मत में धर्म, अधर्म, आकाश, काल प्रादि सर्वद्रव्य निष्फलपने को प्राप्त होय हैं । ऐसे पुरुषों को कार्य का ज्ञान नहीं है।
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