Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
समाधान-तीर्थकरप्रकृति का उदय १३ वें गुणस्थान में होता है, किन्तु तीर्थंकरप्रकृति के साथ अन्य पुण्य प्रकृतियों का भी बंध होता है जिनके कारण गर्भादि कल्याणक होते हैं। कहा भी है-जिसके उदय से पाँच महाकल्याणकों को प्राप्त करके तीर्थ अर्थात् बारह अङ्गों की रचना करता है वह तीर्थकर नामकर्म है। (षटखंडागम धवल सिद्धांतग्रंथ पुस्तक १३, पृष्ठ ३६६ )। तीर्थंकर के जन्म के समय नरक में क्षणभर के लिये सुख होता है वह कथन वास्तविक है। इन्द्रादि अपनी भक्तिवश गर्भादि कल्याणक मनाते हैं।
-ज. सं. 19-3-59/V/4. ला. जैन, कुचामन सिटी
तीर्थंकरप्रकृति के उदय के पूर्व भी अतिशय क्यों ? शंका- आपने बताया कि तीर्थकरप्रकृति का उदय १३ वें गुणस्थान में ही होता है, इससे पूर्व नहीं। इस पर हमारी प्रतिशंका यह है कि तीर्थंकरों के गर्भ, जन्म, तप कल्याणक, जन्म के १० अतिशय, तीन ज्ञान की प्राप्ति. नरक में भी तीर्थकर के जीव को मृत्यु के ६ मास पूर्व से रियायत, स्वयंबुद्धता आदि अलौकिक बातें किस प्रकृति के समय से होती हैं ? जन्मते ही वे तीर्थकर क्यों कहे जाते हैं ? इन सबका कारण तीर्थकरप्रकृति के आबाधाकाल की समाप्ति मान लिया जाय तो क्या आपत्ति है?
समाधान-तीर्थक र प्रकृति का उदय तो तेरहवें गुणस्थान में ही होता है, उससे पूर्व तीर्थकर प्रकृति का परमुख उदय होता है अर्थात् दूसरी प्रकृति का रूप संक्रमण होकर उदय होता है। तीर्थंकरप्रकृति के बन्ध के समय
पण्य-प्रकतियाँ भी बंधती हैं जिनके उदय में गर्भ, जन्म व तपकल्याणक तथा जन्म के दस अतिशय आदि होते हैं । द्रव्य निक्षेप व नैगमनय से जन्मते ही तीर्थंकर कहे जाते हैं । तेरहव गुणस्थान से पूर्व होनेवाली सब अलौकिक बातों का कारण तीर्थकरप्रकृति का उदय नहीं माना जा सकता, क्योंकि आगम से विरोध आता है।
-जं. सं. 21-6-56/VI/ र. ला. जैन, केकड़ी
कर्म उदयावस्था में एवं इससे पूर्व भी आत्मा को प्रभावित करता है
शंका- रागद्वषादि तथा हिंसादि पाप किये जाते समय भी आत्मा को दुःख का वेदन कराते हैं या उनके बाबांधे गये कर्म के उदय में ही दुःख का वेवन होता? यदि कहा जाय रागद्वष आदि पूर्व कर्मोदय के फलस्वरूप है तो उन उदयागत भावों के अतिरिक्त जो भाव नये कर्मों के आस्रव में कारण हैं, उसके लिये ही उपर्यत प्रश्न है ? समझना यह है कि कर्मबन्ध स्वयं भी आत्मा के लिये दुःखकारी है या कर्मोदय ही आत्मा को प्रभावित करता है ? यह प्रश्न तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय ७ के सूत्र 'दुःखमेव वा' के सन्दर्भ में भी है।
समाधान-"अनाकुलत्वलक्षणं सौख्यं" अर्थात् सुख का लक्षण अनाकुलता है। (प्रवचनसार पृ. ४४. ६१, १६१ )। इससे विपरीत अर्थात् आकुलता दुःख का लक्षण है। दुःख का दूसरा लक्षण खेद है । परतन्त्रता तो दुःखरूप ही है।
__राग-द्वेषभाव आकुलतारूप हैं अतः दुःखमय हैं । हिंसादिपाप करते समय आकुलता भी होती है, खेद भी होता है तथा कर्मबन्ध भी होता है जो जीव को परतन्त्र करते हैं । आकुलता, खेद और परतन्त्रता दुःखरूप होने से हिंसा प्रादि पाप करते समय दुःख होता है।
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