Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
View full book text
________________
ध्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ ४५३
एवं गाणी सुद्धो ण सयं परिणमइ रायमाईहि ।
राइज्जदि अपरणेहि दु सो रागादीहिं दोसेहिं ॥२७९।। अर्थ-जैसे स्फटिकमणि शुद्ध होने से ललाई-आदिरूप से अपने आप परिणमता नहीं है, परन्तु अन्य रक्तादि द्रव्यों से वह रक्त ( लाल ) आदि किया जाता है, इसी प्रकार आत्मा शुद्ध होने से रागादिरूप अपने आप परिणमता नहीं, परन्तु अन्य रागादि दोषों से वह रागी आदि किया जाता है ।
इन आगम प्रमाणों से यह स्पष्ट है कि द्रव्यकर्मों के द्वारा आत्मा परतंत्र किया जाता है और द्रव्य कर्मों के द्वारा ही आत्मा रागीद्वेषी किया जाता है अर्थात क्रोधादि भावकर्म किये जाते हैं।
शंका-द्रव्यकर्म तो जड़ हैं उनमें आत्मा के ज्ञानादि गुणों को घातने की शक्ति नहीं होने से उनके द्वारा जीव परतंत्र कैसे किया जा सकता है ?
समाधान-द्रव्यकर्म पौद्गलिक होने से जड़ हैं। पुद्गल द्रव्य में भी अनन्तशक्ति है अतः जीवके केवलज्ञानमादि स्वभाव पुद्गलद्रव्य के द्वारा विनाश को प्राप्त हो जाते हैं, कहा भी है
का वि अउवा दीसदि पुग्गल दध्वस्स एरिसी सत्ती। केवलणाण-सहावो विणासिदो जाइ जीवस्स ॥२११॥ ( स्वामिकातिकेयानुप्रेक्षा)
अर्थ-पुद्गलद्रव्य की कोई ऐसी अपूर्व शक्ति है, जिससे जीव का जो केवलज्ञान स्वभाव है वह भी विनष्ट हो जाता है । इसकी संस्कृत टीका में कहा है कि 'ऐसी शक्ति पुद्गलद्रव्य के अतिरिक्त अन्य द्रव्य में नहीं पाई जाती, अत: अपूर्व शक्ति कहा है। यह शक्ति जीव के अनन्तचतुष्टय स्वरूप का विनाश करती है, क्योंकि मोह और प्रज्ञान को उत्पन्न करना पुद्गल का स्वभाव है।'
श्री परमात्मप्रकाश में भी कहा है
कम्मई दिढ-घण-चिक्कणई गुरुवई वज्ज समाई।
णाण-वियक्खणु जीवऊ उप्पहि पाउहिं ताई ॥७८ ॥ अर्थ-ज्ञानावरणमादि कर्म बलवान हैं, बहुत हैं, जिनका विनाश करना अशक्य है, चिकने हैं, भारी हैं पौर वन के समान अभेद्य हैं। वे ज्ञानादिगुण से चतुरजीव को खोटेमार्ग में पटकते हैं। इसकी संस्कृत टीका में भी कहा है-यह जीव एकसमय में लोकालोक के प्रकाशनेवाले केवलज्ञानआदि अनन्तगुणों से बुद्धिमान चतुर हैं तो भी इस जीव को वे संसार के कारण कर्म ज्ञानादिगुणों का आच्छादन करके अभेद रत्नत्रयरूप निश्चयमोक्षमार्ग से विपरीत खोटेमार्ग में डालते हैं।'
मुलाराधना में भी इसी प्रकार कहा है
कम्माई बलियाई वलिओ कम्मादु णस्थि कोइ जगे।
सव्वबलाइ कम्म मलेवि हत्थीव णलिणिवणं ॥१६२१॥ अर्थात-जगत में कर्म ही अतिशय बलवान है उससे दूसरा कोई भी बलवान नहीं, जैसे हाथी कमल वन का नाश करता है। वैसे ही यह बलवान कर्म सब कुछ नाश करता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org