Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
View full book text
________________
व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ ४४१
विशेष हैं ( अधिक हैं ) । उन स्थितिबन्धस्थानविशेषों में जघन्य स्थितिबन्धस्थान मिला देने से ( जघन्य ) स्थितिबन्धस्थानों की संख्या प्रा जाती है । जैसे ४ समय तो जघन्यस्थितिबन्धस्थान है और १० समय उत्कृष्टस्थितिबन्धस्थान है । १० में से ४ घटा देने पर छह शेष रहते हैं । छह स्थितिबन्धस्थानविशेषों की संख्या है, किन्तु स्थितिबन्धस्थान चारसमय से दससमय तक सात हैं जो 'स्थितिबन्ध स्थान विशेष' से एक अधिक है ।
- पत्राचार / ब. प्र. स, पटना
स्थितिबन्ध में श्राबाधा-विषयक नियम
शंका-कर्म स्थिति बंध में आबाधाकाल का क्या नियम है ?
समाधान - एककोड़ाकोड़ीसागरोपम कर्मस्थितिबंध का आबाधाकाल सौवर्ष होता है। एक कोड़ाकोड़ीसागरोपम से अधिक कर्मस्थितिबंध होनेपर त्रैराशिक क्रम से उन उन स्थितिबंधों की आबाधा प्राप्त हो जाती है । कहा भी है
"सागरोपमकोडाकोडीए वाससदमावाधा होदि, तं तेरासियकमेणागद ।" ( धवल पु० ६ पृ० १७१ )
एककोड़ाकोड़ीसागरोपम से कम कर्मस्थितिबंध होने पर प्रबाधाकाल का प्रमाण अन्तर्मुहूर्त हो जाता । यदि वहाँ पर राशिकक्रम लगाया जाय तो क्षपकश्रेणी में होनेवाले अन्तर्मुहूतं प्रमित स्थितिबन्धों की अभाव का प्रसंग भा जायगा। कहा भी है
आबाधा के
"सग-सगजा विपडिबद्ध द्विविबंधेसु आबाधासु च एसो तेरासियजियमो, न अण्णस्थ, खवगसेडीए अंतोमुहुतद्विविबंधानमाबाधाभावप्यसंगायो । तम्हा सगसगुक्कस्सट्ठि विबंधे ।
सग-सगुक्कस्साबाधाहि ओव द्विदेसु आबाधाकंडयाणि आगच्छंति त्ति घेसव्वं । तबो एत्थ अंतोमुहत्ताबाधाए वि संतीए अंतो कोड़ाकोड़ी द्विदिबंधो होदि ति ।"
अर्थ - प्रपनी-अपनी जाति से प्रतिबद्ध स्थितिबन्धों में और आबाधाओं में यह त्रैराशिक का नियम लागू होता है, अन्यत्र नहीं, प्रन्यथा क्षपकश्रेणी में होनेवाले अन्तर्मुहूर्त प्रमित स्थितिबन्धों की आबाधा के अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है । इसलिये अपने-अपने उत्कृष्ट स्थिति बन्ध को अपनी-अपनी उत्कृष्टआबाधाओं से अपवर्तन करने पर आबाघाकांडक भा जाते हैं, ऐसा नियम ग्रहण करना चाहिये । अतएव यह सिद्ध हुआ कि अन्तर्मुहूर्तमात्र आबाधा के होने पर भी स्थितिबन्ध अन्तःकोड़ा कोड़ी सागरोपमप्रमाण होता है ।
- जै. ग. 30-12-71 / VI- VII / रो. ला. मित्तल
तियंचगति श्रादिक का उत्कृष्ट बन्धकाल तीनहजार वर्ष है
शंका- औवारिककाययोग में तियंचगतित्रिक का उत्कृष्टबंधकाल तीनहजारवर्ष कैसे सम्भव है ?
समाधान — एकेन्द्रियस्थावरपर्याप्त जीवोंके आयुपर्यंत एक औदारिककाययोग ही होता है, क्योंकि उनके बचन और मन का अभाव है । तेजस ( अग्नि ) कायिक और वायुकायिक एकेन्द्रियजीवों के तियंचगति, तियंचगत्या
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org