Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
View full book text
________________
व्यक्तित्व और कृतित्व ]
एक ही सामग्री से कभी दुःख का अनुभव होता है और कभी सुख का अनुभव होता है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि साता के उदय में सुख वेदन में जो सामग्री आश्रय पड़ रही थी, वही सामग्री असाता के उदय होने पर दुःख वेदन करने में आश्रय पड़ गई। बाह्य सामग्री के मिलने में पुण्य या पाप कर्मोदय निमित्त होना ही चाहिये ऐसा कोई एकान्त नियम नहीं है। इस विषय में अनेकान्त द्वारा विशेष जानकर विचार करना चाहिये।
-जं. सं. 9-1-58/VI/ रा. दा. कैराना
कर्मोदय के लिए द्रव्य क्षेत्रादि निमित्त प्रावश्यक होते हैं
शंका-जिस कर्म का अबाधा काल समाप्त हो गया उस कर्म के निषेक क्रम-क्रम से उदय में आते रहते हैं और अपना फल देकर निर्जरा को प्राप्त होते रहते हैं उस कर्मोदय के लिये बाह्य द्रव्य-क्षेत्र-कालआदि निमित्तों की क्या आवश्यकता?
समाधान कार्य के लिए अन्तरंग और बहिरंग दोनों कारणों की आवश्यकता होती है। कर्मोदय भी कार्य है अतः कर्मोदय के लिये भी बाह्य द्रव्य, क्षेत्रमादि की आवश्यकता है क. पा. सुत्त गाथा ५९ के उत्तरार्ध में कहा है.---.'खेत्त-भवकालपोग्गल-द्विदिविवागोदयखयदु ।' इसकी विभाषा करते हुए चूणि सूत्रकार चूणिसूत्र २२० में लिखते हैं-'कम्मोदयो खेत्त-भवकालपोग्गल-ट्रिदिविवागोदयक्खओ भवदि ।' अर्थात् -'क्षेत्र, भव, काल और पुद्गलद्रव्य का प्राश्रय लेकर जो स्थितिविपाकरूप उदय होता है, उसे क्षय कहते हैं।' 'वह कर्मोदय क्षेत्र, भव, काल और पूगलद्रव्य के आश्रय से स्थिति के बिपाकरूप होता है, इसी को उदय या क्षय कहते हैं।'
___ क्षेत्र' पद से नरकादि क्षेत्र का, 'भव' पद से जीवों के एकोन्द्रियादि भवों का, 'काल' पद से शिशिर-वसन्त अादि काल का अथवा बाल-यौवन-वार्धक्य आदि काल-जनित पर्याय का और पुद्गल पद से गंध ताम्बूल वस्त्र प्राभरण आदि इष्ट-अनिष्ट पदार्थों का ग्रहण होता है। सारांश यह है कि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव आदि का निमित्त पाकर कर्मों का उदय और उदीरणारूप फल-विपाक होता है।
गोम्मटसारकर्मकांड में कर्मों का नोकर्मद्रव्य का कथन करते हुए गाथा ७२ में कहा है-'पाँच निद्राओं का नोकर्म, भैंस का दही, लहसन इत्यादिक निद्रा की अधिकता करने वाली वस्तुए हैं।' अर्थात् भैस का दही आदि खाने से निद्रा का विपाकोदय हो जाता है।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय ९ सूत्र ३६ की टीका में विपाक-विचय धर्मध्यान का कथन करते हुए लिखा है 'कर्मणां ज्ञानावरणावीनां द्रव्यक्षेत्रकालभवभावप्रत्ययफलानुभवनं प्रति प्रणिधानं विपाकविचयः।' अर्थात्-ज्ञानावररणादिकर्मों के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव निमित्तक फलके अनुभव के प्रति उपयोग का धर्मध्यान है। सन् १९५५ ई० में श्री पं० फूलचन्दजी सिद्धान्तशास्त्री इसके विशेषार्थ में इस प्रकार लिखते हैं 'मान लो एक व्यक्ति हँस खेल रहा है, वह अपने बाल-बच्चों के साथ गप्पगोष्ठी में तल्लीन है। इतने में अकस्मात् मकान की छत टूटती है और वह उससे घायल होकर दुःख का वेदन करने लगता है तो यहाँ उसके दुःख वेदन के कारणभूत असातावेदनीय के उदय और उदीरणा में टकर गिरने वाली छत का संयोग निमित्त है। टूटकर गिरनेवाली छत के निमित्त से उस व्यक्ति के असातावेदनीय की उदय-उदीरणा हुई और असातावेदनीय के उदय-उदीरणा से उस व्यक्ति को दुःख का अनुभवन हुआ।' यह उक्त कथन का तात्पर्य है। काल के निमित्तक होने का विचार दो प्रकार से किया जाता है एक तो प्रत्येककर्म का उदय-उदीरणा काल और दूसरे वह काल जिसके निमित्त से
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org