Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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समाधान-अध्यवसाय का अर्थ 'ज्ञान' है, जैसा कि श्री कुदकुवआचार्य ने कहा है।
बुद्धि ववसाओविय अमवसाणं अईव विण्णाणं ।। एक्कट्रमेव सव्वं चित्तं भावो य परिणामो ॥ २७१॥(समयसार)
बुद्धि, व्यवसाय, अध्यवसान, मति, विज्ञान, चित्त, भाव और परिणाम ये सब एकार्थ वाची हैं ।
वत्यु पहुच्च जं पुण अज्झवसाणं तु होइ जीवाणं । ण य वत्थुदो दु बंधो अज्सवसारणेण बंधोत्थि ॥२६॥ (स० सा०)
टीका-बाह्य पंचेन्द्रियविषय भूते वस्तुनि सति अज्ञानभावात् रागाधध्यवसानं भवति तस्मावध्यवसानाद् बंधो भवतीति पारंपर्येण वस्तु बंधकारणं भवति न साक्षात् ?
इन्द्रियों के विषयभूत बाह्य वस्तु के निमित्त से जो अध्यवसान होता है वह अध्यवसान साक्षात् बंध का कारण है; बाह्य-वस्तु साक्षात् बंध का कारण नहीं है, परम्परा-बंध का कारण है।
इस प्रकार रागादि मिश्रित अध्यवसाय बंध का कारण है, मात्र अध्यवसाय या अध्यवसान बंध के कारण नहीं हैं, क्योंकि वह विज्ञान व चित्तस्वरूप है।
कषायमध्यवसायस्थान कषायोदयसे उत्पन्न होते हैं। उसके मूल में दो भेद हैं-संक्लेशस्थान, विशुद्धिस्थान । प्रासातावेदनीय के बन्धयोग्य कषायोदयस्थानों को संक्लेश कहा जाता है। वे जघन्यस्थिति में स्तोक होकर आगे द्वितीयस्थिति से लेकर उत्कृष्टस्थिति तक विशेषाधिकता के क्रम से जाते हैं। ये सब मूल प्रकृतियों के समान हैं, क्योंकि कषायोदय के बिना बंध को प्राप्त होने वाली कोई मूल-प्रकृति पायी नहीं जाती। सातावेदनीय के बंधयोग्य परिणामों को विशुद्धिस्थान कहते हैं। ये उत्कृष्ट स्थितिमें स्तोक होकर आगे द्विचरमस्थिति से लेकर जघन्यस्थिति तक गणना की अपेक्षा विशेष अधिकता के क्रम से जाते हैं । (धवल पु० ११ पृ० ३०९)
अनुभागबंधस्थानों को अनुभागबंधाध्यवसानस्थान कहते हैं (धवल पु० १२ पृ० १८) सब मूल प्रकृतियों की स्थितिबन्ध व अनुभागबन्ध के लिए कषायोदयस्थान अर्थात् कषायाध्यवसायस्थान समान हैं, किन्तु अनुभागबन्धस्थान सब प्रकृतियों के समान नहीं हैं । जैसा कि महाबन्ध पुस्तक ५ पृ० ३७८ पर कहा है
"सातावेदनीय के अनुभागबन्धाध्यवसायस्थान सबसे अधिक है। इससे यशकीर्ति और उच्चगोत्र के अनभागबन्धाध्यवसायस्थान असंख्यातगुणेहीन हैं । इससे देवगति के अनुभागबन्धाध्यवसायस्थान असंख्यातगुणेहीन हैं: इत्यादि" कषाय के अतिरिक्त अनुभागबन्ध के अन्य भी कारण हैं, जिनका कथन तत्त्वार्थसूत्र अध्याय ६ सूत्र १०-२७ में है।
इससे स्पष्ट हो जाता है कि कषायाध्यवसायस्थान से अनुभागबन्धमध्यवसायस्थान भिन्न हैं। इसी प्रकार कषायाध्यवसायस्थान से स्थिति बन्धाध्यवसायस्थान भी भिन्न हैं। (धवल पु० ११ पृ० ३१०)।
-जें. ग. 18-3-76/.." | र. ला. जैन
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