Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
View full book text
________________
४४२ ]
[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
नुपूर्वी और नीचगोत्र का ही निरन्तर बंध होता रहता है, क्योंकि उनके अन्यगति व उच्चगोत्र के बंध का अभाव है। वायुकायिक की उत्कृष्टआयु तीनहजारवर्ष की है । अतः वायुकायिक की अपेक्षा प्रौदारिककाययोग में तियंच. गतित्रिक का उत्कृष्टबंधकाल तीनहजारवर्ष है।
"तेउकाइय-वाउकाइय-बादरसहम पज्जत्तापज्जत्ताणं सो चेव भंगो, णवरि विसेसो मणुस्साउमणसगइमणुसगईपाओग्गाणुपूवी-उच्चागोदं णस्थि ॥ १३८ ॥ तिरिवखगई-तिरिक्खगईपाओग्गाणुपूवीणीचागोदाणं सांतर. णिरंतरो बंधो, सम्वेइ दिएसु सांतरबंधाणमेदासितेउ-वाउकाइएसु णिरंतरबंधुवलंभावो।"
(धवल पु० ८ पृ० १९९ व १६१ )
तेजकायिक और वायुकायिक जीवों में मनुष्यगति, मनुष्य गतिप्रायोग्यानुपूर्वी व उच्चगोत्र का बंध नहीं होता है इसलिये उनमें तिर्यग्गति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और नीचगोत्र का निरंतर बंध पाया जाता है।
"णरदुयणराउ-उच्चूण तेउवाउगिदियपयडीओ । मनुष्यगति-मनुष्यगत्यानुपूर्वद्वय मनुष्यायुरुच्चैर्गोत्रीनां एकेन्द्रियोक्तप्रकृतय १०९ तेजस्काये वायुकाये च मिथ्यादृष्टौ १०५ बंधयोग्याः।" (प्रा. पं. सं.पृ० २३१)
एकेन्द्रिय जीवों के नरकगति व देवगति आदि से रहित १०६ प्रकृतियों का बन्ध होता है। उनमें से मनुष्यगति, मनुष्यागत्यानुपूर्वी, मनुष्यायु और उच्चगोत्र इनके कम करने से १०५ प्रकृतियाँ तैजसकायिक व वायुकायिक जीव बांधते हैं। ... "वायुकायिकानां त्रीणि वर्षसहस्राणि ।" वायुकायिक जीवों की तीनहजारवर्ष की उत्कृष्ट आयु होती है ।
-णे. ग. 1-4-76/VIII/ र. ला. जन सर्वबन्ध तथा नोसर्व बन्ध का अर्थ शंका-मोहनीयकर्म तथा नामकर्म में दर्शनावरण के समान सर्वप्रकृतियों के बन्ध करनेवाले के सर्वबन्ध और कुछ न्यून प्रकृतियों के बन्ध करनेवाले नोसर्वबन्ध होता है, ऐसा महाबन्ध पुस्तक १ में लिखा है ? मोहनीय की २६ प्रकृतियों का और नामकर्म की ९३ प्रकृतियों का कभी भी किसी भी जीव के बन्ध नहीं होता है, तो सर्वबन्ध किस प्रकार लागू हुआ?
समाधान-मोहनीयकर्म की यद्यपि २६ प्रकृतियां हैं, किन्तु उनमें उत्कृष्टप्रकृतिबंधस्थान २२ प्रकृति वाला है । कहा भी है
वावीसमेक्कवीसं सत्तारस तेरसेव नव पंच ।
घउ-तिय-दुयं च एवं बन्धट्ठाणाणि मोहस्स ॥२५॥ ( प्रा. पं. सं. पृ. ३१५) मोहनीयकर्म के दश बन्धस्थान हैं,–२२, २१, १७, १३, ६, ५, ४, ३, २ और १ प्रकृतिक । २२ प्रकतिक बंधस्थान सर्वबन्ध है और शेष नोसर्वबंध है।
नामकर्म की यद्यपि ९३ प्रकृतियाँ हैं तथापि उनमें उत्कृष्ट प्रकृतिबन्धस्थान ३१ प्रकृतिवाला है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org