Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार । समाधान-शुभकार्य करते समय प्रायः तीव्रसंक्लेशपरिणाम नहीं होते, क्योंकि तीव्र संक्लेशपरिणामों के समय पापकार्य होते हैं। जिसके तीव्रसंक्लेशरूप परिणाम होते हैं उसके भी शरीरमादि पुण्यप्रकृतियों का बन्ध होता है और उन पुण्यप्रकृतियों में जघन्यअनुभागबन्ध होता है ।।
-जं. ग. 10-1-66/VIII/ र. ला. जैन
पुण्यपाप प्रकृतियाँ
शंका-नरकायु के अतिरिक्त शेष तीनों आयु पुण्यप्रकृति कही गई है, किन्तु नामकर्म में तियंचगति व नरकगति दोनों पापप्रकृति कही गई है ऐसा भेद क्यों है अर्थात् तियंचायु को पुण्यप्रकृति क्यों कहा गया है ?
समाधान-जिन प्रकृतियों का उत्कृष्ट-अनुभागबन्ध विशुद्धपरिणामों से होता है वे पुण्य प्रकृतियां हैं। जिन प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभागबन्ध उत्कृष्ट संक्लेशपरिणामों से होता है वे पापप्रकृतियां हैं। (गो० सा० कर्मक गा० १६४) विशुद्धपरिणामवाले मिथ्याष्टिके तिर्यंचायु का उत्कृष्ट अनुभागबंध होता है (गो० सा० कर्म० १६५) अतः तिथंचायु पुण्यप्रकृति है। तिर्यंचगति का उत्कृष्ट अनुभागबंध संक्लेशपरिणामवाले मिथ्यादृष्टिदेव व नारकीजीव के होता है । (गो० सा० क० १६९ ) अतः तियंचगति पापप्रकृति है।
तिथंचगति में कोई जीव जाना नहीं चाहता अतः तिर्यंचगति पापप्रकृति है, किन्तु तिथंचगति में पहुँच जाने के पश्चात वहाँ से मरना नहीं चाहता, क्योंकि तियंच भी मरने से डरते हैं, अतः तियंचायु पुण्यप्रकति है। नरकगति में कोई जीव जाना नहीं चाहता और न वहां कोई रहना चाहता है, किन्तु अतिशीघ्र मरण चाहता है अतः नरकगति व नरकायु दोनों पापप्रकृतियाँ हैं।
-जं. ग. 15-2-62/VII/ म. ला.
शुभाशुभ कर्मस्थिति
शंका-मनुष्य-तियंच वेवायु की स्थिति के अतिरिक्त शेष सब पुण्यप्रकृति की स्थिति अशुभ ही है तो क्या तीर्थकरप्रकृति की स्थिति भी अशुभ हो है ? ये तीनों आयु तो संसार में रोकती ही हैं फिर इनकी स्थिति को शुम क्यों कहा?
समाधान-जिन प्रकृतियों की उत्कृष्टस्थिति शुभ अर्थात् विशुद्धपरिणामों से बंधती है उन प्रकृतियों की स्थिति शुभ कहलाती है और जिनप्रकृतियों की उत्कृष्टस्थिति संक्लेश अर्थात् अशुभ परिणामों से बंधती है उन प्रकृतियों की स्थिति अशुभ होती है, क्योंकि कारण के अनुसार कार्य होता है । जिस स्थिति का कारण अशुभ है वह अशभस्थिति और जिस स्थिति का कारण शुभ है वह शुभ स्थिति । "नरक बिना तीन प्रायु का स्थितिबन्ध विशुद्धता तें अधिक होय है अन्य सर्व शुभाशुभ प्रकृतिनि का स्थितिबन्ध संक्लेश तें बहुत होय है ( लम्धिसार बड़ी टीका पृ० १७ ) । इसप्रकार मनुष्य, तियंच और देवआयु की अधिकस्थिति शुभपरिणामों से होती है अत: यह स्थिति शुभ है। तीर्थंकरप्रकृति की उत्कृष्टस्थिति अशुभ-परिणामों से होती है अत: तीर्थकरप्रकृति की स्थिति अशुभ है। जो असंयत-सम्यष्टिमनुष्य साकार, जागृत है, तत्प्रायोग्य संक्लेशवाला है और मिथ्यात्व के अभिमुख है ऐसा जीव तीर्थंकरप्रकति के उत्कृष्टस्थितिबन्ध का स्वामी है । ( महाबन्ध पु० २ १० २५७ ) प० २५६ पर
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