Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
बन्ध प्रारम्भ किया है वे अन्तर्मुहूर्त में प्रयुकर्म के बन्ध को समाप्त कर फिर भी आयु के नौवेंभाग में श्रायुबन्ध के योग्य होते हैं । तथा फिर भी आयु के सत्ताईसवाँ भाग शेष रहनेपर पुनरपि प्रायुबन्ध के योग्य होते हैं । इसप्रकार उत्तरोत्तर जो त्रिभाग शेष रहता जाता है उसका त्रिभाग शेष रहने पर यहाँ आठवें अपकर्ष तक प्राप्त होने तक आयुबन्धके योग्य होते हैं । त्रिभाग के शेष रहने पर प्रायु नियम से बँधती है ऐसा एकान्त नहीं, किन्तु उस समय जीव श्रायुबन्ध के योग्य होते हैं ( धवल पु० १० पृ० २३३-२३४ ) ।
श्रायुबन्ध के बाद गतिबन्ध का नियम
शंका- मिथ्यात्वगुणस्थान में आयुके साथ में गतिबंध के बाद में दूसरी गतियों का बंध हो सकता है या नहीं ? इसी तरह अन्य गुणस्थानो में भी स्पष्ट स्थिति क्या है ?
- जै. ग. 21-3-63 / IX / जिनेश्वरदास
समाधान - मिथ्यात्वगुणस्थान में जिससमय प्रयुका बन्ध होता है उससमय तो प्रायु के अनुसार ही गति का बंध होता है; अन्य समय एक ही गति का निरंतर बन्ध नहीं, किन्तु चारों गतियों में से कभी किसी गति कभी किसी गति का बन्ध होता रहता है । आयुबन्ध के पश्चात् भी प्रायु के विरुद्ध अन्य गतियों का बन्ध होता रहता है । सासादन नामक दूसरे गुणस्थान में नरकगति के अतिरिक्त अन्य तीनगतियों का बन्ध होता रहता है । इससे ऊपर तीसरे चौथे गुणस्थानवर्ती देव व नारकी मात्र मनुष्यगति का ही बंध करते हैं । तियंच तीसरे चौथे पाँचवें गुणस्थानों में देवगति का ही बंध करते हैं। मनुष्य तीसरे से आठवें गुणस्थान तक देवगति का ही बंध करते हैं । इससे ऊपर के गुणस्थानों में गतिनामकर्म का बन्ध नहीं होता । इस सम्बन्ध में धवल पुस्तक ८ पृ० ३३, ४४, ४७, ६८ बेखना चाहिये ।
श्रायु के जघन्य प्रदेश बन्ध का स्वामी
शंका- महाबंध पुस्तक ६ पृ० २२ पर 'आयु के जघन्यप्रदेशबन्ध के स्वामी सूक्ष्म निगोदअपर्याप्तक को भवके तृतीयभाग के प्रथमसमय में ही आयुबन्ध होता है' ऐसा कहा है । प्रश्न यह होता है कि परिणामयोगवाले प्रथमसमयवाले भी पाये जाते हैं और दूसरे भी, तो फिर प्रथमसमयवाले ही क्यों कहा ?
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- जै. ग. 8-5-63 / IX / म. ला. जैन
समाधान — सूक्ष्मनिगोदिया लब्ध्यपर्याप्तकजीव के सबसे जघन्ययोग होता है । विग्रहगति में उपपादयोग होता है । उसके पश्चात् एकान्तानुवृद्धियोग होता है। मुज्यमान आयुका तृतीयभाग शेष रहनेपर परिणामयोग प्रारम्भ होता है । ये तीनों प्रकार के योग अपने-अपने प्रथमसमय में ही जघन्य होते हैं जैसा कि धवल पुस्तक १० पृ० ४२१-४२२ से ज्ञात होता है । ( यहाँ पर एकान्तानुवृद्धियोग तथा लब्ध्यपर्याप्त कजीवोंके परिणामयोगका कथन लेखक की भूल से छूट गया है। ) किन्तु धवल पु० १० पृ० ४२६ पर जघन्यपरिणामयोग का काल जघन्य से एकसमय उत्कर्षं से चारसमय कहा है । यह काल आयुबन्धयोग्य अर्थात् परिणामयोग के प्रथमसमय से प्रारंभ होता है । जघन्यपरिणामयोग के समय ही जघन्य प्रदेशबन्ध होगा । अतः महाबंध पुस्तक ६ पृ० २२ पर आयुकर्म के जघन्य प्रदेशबंध का स्वामी सूक्ष्मनिगोदअपर्याप्तजीव क्षुल्लकभवग्रहण के तृतीय- त्रिभाग के प्रथमसमय में आयु बन्ध कर रहा है, जघन्य योगवाला है और जघन्य प्रदेशबन्ध में स्थित है वह प्रयुकर्म के जघन्य प्रदेशबन्ध का स्वामी है, ऐसा जीव कहा है ।
- जै. ग. 20-6-63 / IX / पन्नालाल
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