Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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suक्तित्व और कृतित्व ]
जो असंख्यातवर्ष की आयुवाले हैं, उनकी प्रयुका कदलीघात नहीं होता, ऐसा निम्न सूत्र है
"औपपाविकच रमोत्तमवेहाऽसंख्येयवर्षायुषोऽनपवर्त्यायुषः ।"
जिन जीवों की आयु का कदलीघात नहीं होता अर्थात् जो निरुपक्रमायुष्कजीव हैं वे अपनी आयु में छह माह शेष रहनेपर आयुबंध के योग्य होते हैं, ऐसा पारिणामिक नियम है । अतः उनकी प्रायु के अन्तिम छहमास के अतिरिक्त शेष भुज्यमानआयु परभविकआयुबंध के बिना बीत जाती है ।
"freereमाउआ पुण छम्मासावसेसे आउअबंधपाओग्गा होंति ।"
जो निरुपक्रमायुष्कजीव होते हैं वे अपनी भुज्यमान प्रायु में बहमाह शेष रहनेपर प्रायुबंध के योग्य
होते हैं ।
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चारों गतियों के जीव कब श्रायुबंध के योग्य होते हैं ?
शंका - पूर्वकोटि या उससे कम आयुवाले जीव भुज्यमान आयु का त्रिभाग शेष रहने पर ही परभवसम्बन्धी आयु का बंध करते हैं क्या ?
- जै. ग. 3-6-76/VI / सु. प्र. जैन
समाधान - पूर्वकोटि या उससे कम प्रायुवाले मनुष्य व तियंच संख्यातवर्षं आयुवाले कर्मभूमिया होने से वे मनपवत्यं ( निरुपक्रम ) आयुवाले नहीं होते हैं अर्थात् सोपक्रमायुवाले होते हैं, जो सोपक्रमायु वाले होते हैं, वे मुज्यमानआयु का दो - त्रिभाग बीत जाने पर अर्थात् एक तिहाई मुज्यमानश्रायु शेष रहने पर अगले भवसम्बन्धी आयुबंध के योग्य होते हैं ।
"जे सोवक्कमाउआ ते सगसग भुजमाणाउ द्विदीए वे तिभागे अविक्कते परमवियाउअबंधपाओग्गा होंति जाव असंखेद्धाति ।" ( धवल पु० १० पृ० २३३ )
जो जीव सोपक्रमाक हैं ( जिनकी आयु का कदलीघात संभव है ) वे अपनी-अपनी मुज्यमान आयु स्थिति के दो त्रिभाग बीत जाने पर वहाँ से लेकर असंक्षेपाद्धाकाल तक परभविक श्रायु को श्राठ - श्रपकर्षो में बाँधने के योग्य होते हैं ।
" ताव वेव-लेरइएसु बहुसागरोवमा उट्ठिदिएसु पुष्वकोडिति भागावो अधिया अबाधा अस्थि, तसि धम्मासावसेसे भुजमाणाउए असंखेपद्धा पज्जवसाणे संते परमवियमाउअं बंधमाणाणं तदसंभवा । ण तिरिखख - मणुसेसु वि तो अहिया आबाधा अस्थि, तत्थ पुण्यकोडोदो अहियभवद्विदीए अभावा । असंखेज्जवस्साऊ तिरिक्ख मणुसा अस्थि ति चे, ण, तेसि वेव-पेरइयाणं व भुजमाणाउए छम्मासादो अहिए सते पर भविआउअस्स बंधाभावा । संखेज्जवस्ता उआ वितिरिक्खमणुसा कदलोधावेण वा अधद्विदि गललेणं वा जाव भुंजावभुत्ताउ द्विदीए अद्धपमारोण तो होणपमारणेण वा भुजमाणाउअं ण कदं ताव ण पर भवियमाउवं । कुदो ? परिणामियादो । तम्हा उबकस्साबाधा पुग्वकोडितिभागादो अहिया णत्थि त्ति घेत्तव्यं ।' ( धवल पु० ६ पृ० १७० )
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अनेक सागरोपमों की प्रायुस्थितिवाले देव और नारकियों में पूर्वकोटि के त्रिभाग से अधिक आयुकर्म की बाधा नहीं होती है, क्योंकि उनकी मुज्यमानआयु में छहमास से प्रसंक्षेपाद्धाकाल के अवशेष रहनेपर वे प्रायुबंध
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