Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[ पं. रतनचन्द जैन मुख्तार : बंध करते हैं अन्य गति का नहीं। प्रतः श्रेणिकमहाराज नरक में निरन्तर मनुष्यगति का बंध कर रहे हैं और छहमाह आयु शेष रह जाने पर मनुष्यायू का ही बंध करेंगे।
-जं. सं. 12-6-58/V/ दि. जैन पंचान, मुहारी गति व प्रायु बन्धों के क्रमशः छूटने व नहीं छूटने सम्बन्धी स्पष्टीकरण शंका-गतिबंध छूट जाता है आयुबंध नहीं छूटता सो कैसे ?
समाधान नरकगति, तियंचगति, मनुष्यगति और देवगति के भेद से गतिबंध चारप्रकार का होता है किन्तु एक समय में एक ही गति का बध होता है किन्तु एकभव में एक से अधिक का बंध होता है । सत्ता में भी एक से अधिक गति रहती है। एकभव में परभवसंबंधी एक ही प्रायुका बंध होता है, एक से अधिक आयु का बंध नहीं हो सकता है। इस परभविक आयु का अबाधाकाल भी पूर्वभव का शेष आयुकाल प्रमाण होता है। गतिबंध के अबाधाकाल का ऐसा नियम नहीं है । इसप्रकार एककाल में एक ही आयु का उदय संभव है, किन्तु गति का ऐसा नियम नहीं है। जिस आयु का उदय होता है उसी गति का स्वमुख उदय होता है और अन्य गतियों का उदयागत गतिरूप स्तिबुकसंक्रमण द्वारा परमुख उदय होता है। कोई भी कर्म, स्वमुख या परमुख उदय बिना निर्जरा को प्राप्त नहीं होता है । कहा भी है
"णच कम्मं सगसक्वेण परसरूवेण वा अवत्तफलमकम्म मावं गच्छति ।" ( जयधवल पु० ३ पृ. २४५)
अर्थ-कर्म स्वरूप से या पररूप से फल बिना दिये अकर्मभाव ( निर्जरा) को प्राप्त नहीं होता। जिसप्रकार अनुदय गतिप्रकृति का स्तिबुकसंक्रमण द्वारा परस्वरूप अर्थात् उदय गति प्रकृतिरूप उदय होता है उसप्रकार मायुकर्म प्रकृति का उदय परस्वरूप नहीं होता है, किन्तु स्वरूप से ही उदय होता है। इसलिये ऐसा कहा जाता है कि मायुबंध नहीं छूटता है।
जो गतिकर्म प्रकृति उदयमें है, उसके अतिरिक्त अन्य गतिप्रकृतियों का स्तिबूकसंक्रमण हो जाता है । अर्थात वे प्रकृतियां उदयागत गतिप्रकृतिरूप संक्रमण होकर परस्वरूप से उदय में प्राती हैं ।
-ज. ग. 19-8-71/VII/ रो ला. मितल बन्ध में मात्र एकक्षेत्रावगाहना ही नहीं होती, अन्य भी वैशिष्टय माता है
शंका-संसारीजीव तथा पौड्गलिककर्म-नोकर्म (शरीर)का मात्र एक क्षेत्रावगाहसंबंध है या इनके परस्परसंबंध में कोई विशेषता है ? एक क्षेत्रावगाह सम्बन्ध तो छहों द्रव्यों में है।
समाधान-संसारीजीव और पौद्गलिककर्म व शरीर का मात्र एकक्षेत्रावगाहसम्बन्ध नहीं है, किन्तु इनका परस्पर बंध हो जाने के कारण कथंचित् एकत्व हो जाता है और दोनों अपने स्वभाव से च्यत होकर एक ततीय अवस्था उत्पन्न हो जाती है। लक्षण की अपेक्षा जीव और कर्म दोनों में नानापन है।
"परस्पर-श्लेषलक्षण: बंधः।"( स० सि० व रा.वा.)
दो द्रव्यों का परस्पर संश्लेष होना बंध का लक्षण है।
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