Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[ ५० रतनचन्द जैन मुख्तार : विग्रहमति में जीव के शरीर, योग व कर्मग्रहण शंका-कातिकेयानुप्रेक्षा माया १८५ में बतलाया है कि जीव शरीर से मिला हुमा होने पर भी सब कार्य करता है । विग्रहगति बमेरह का जो कवन है किस अपेक्षा से है ? खुलासा देखें, भाव की अपेक्षा या किसी दूसरी तरह ?
समाधान-विग्रहमति में यद्यपि जीव के साथ प्रौदारिक, वैक्रियिक और आहारकशरीर नहीं होता तथापि कार्माणशरीर तो रहता है। उसके कार्माणकाय-योग होता है और कर्मों का आस्रव तथा बन्ध करता है। विग्रहगति में सुख-दुःख का वेदन व कषाय भी होती है । अतः यह जीव शुभाशुभ कर्मों का कर्ता है।
–न. ग. 30-10-63/IX/म. ला. फ. प.
विग्रहगति में कर्म-ग्रहण का हेतु शंका-जब तक जीव के साथ आयुकर्म का संबंध है तभी तक जीव कर्म ग्रहण करता है, आयु के सम्बन्ध बिना कर्म ग्रहण नहीं करता है। मायु का सम्बन्ध पूर्वशरीर और उत्तरशरीर के साथ है, आयु का सम्बन्ध छुटने पर शरीरका सम्बन्ध भी छूट जाता है अतः शरीर के अभाव में विग्रहगति में कर्म का प्रहण किस कारण से होता है?
समाधान-संसारी जीव के मायुकर्म का सम्बन्ध सदा बना रहता है । चौदहवें गुणस्थान के अन्त तक मायुकर्म का सम्बन्ध रहता है, किन्तु आयुकर्म बन्ध का कारण नहीं है, क्योंकि चौदहवें गुणस्थान में आयुकर्म का सम्बन्ध तो है, किन्तु कर्मग्रहण नहीं है। पूर्वशरीर तथा उत्तरशरीर के साथ भी आयुकर्म का अविनाभावी सम्बन्ध नहीं है। क्योंकि विग्रहगति में आयुकर्म का सम्बन्ध तो है किन्तु पूर्व शरीर व उत्तर शरीर नहीं है। कर्म ग्रहण का कारण योग है। कहा भी है
'कायवामनः कर्म योगः।६।१। स आस्रवः ॥६॥२॥' ( तत्त्वार्यसूत्र )
अर्ष-काय वचन और मन की क्रिया योग है। योग ही आस्रव है अर्थात् योग के द्वारा ही कर्मों का ग्रहण होता है।
काय अर्थात् शरीर पांच प्रकार के हैं"ौवारिकवैक्रियिकाहारकर्तजसकार्मणानि शरीराणि ॥२॥३६॥ ( तत्त्वार्यसूत्र )
औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कार्मण ये पांच शरीर हैं। विग्रहगति में कार्मण शरीर के निमित्त से योग होता है उस योग से कर्मों का ग्रहण होता है। कहा भी है
"विहगती कर्मयोगः ॥२॥२५॥" (त. सू.)
अर्थ-विग्रहगति में कार्मणकाययोग होता है।
-जे. ग. 26-2-70/lX/रो. ला. मि.
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