Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[पं. रतनचन्द जैन मुख्तार : संज्ञी मार्गरणा
केवली संजी प्रसंज्ञी के विकल्प से रहित हैं शंका-धवल पु० २ पृ० ४४७ नक्शे में संज्ञी मार्गणा के कोष्ठक में १ व अनु० लिखा है क्या यह ठीक है?
समाधान-धवल पुस्तक २ पृ० ४४७ पर आयोगकेवली का नक्शा है। अयोगकेवली संज्ञी नहीं है. क्योंकि इनके अतीन्द्रिय केवलज्ञान है और एकेन्द्रिय आदि तियंचों के समान असंज्ञी भी नहीं हैं। संज्ञीमार्गणा के दो ही भेद हैं-संज्ञी व असंज्ञी। इसलिए प्रयोगकेवली के संज्ञीमार्गणा के कोष्ठक में शून्य होना चाहिए था, एक का अंक अशुद्ध है । "अनु०" अनुभय का द्योतक है जिसका अर्थ होता है "संजीअसंज्ञी से रहित" अतः "अनु०" 'ठीक है।
-णे. ग. 26-10-67/VII/ र. ला. जैन, मन कथंचित् मुक्ति को जाता है शंका-मन मुक्ति को जाता है या नहीं ?
समाधान-मन के द्वारा जब मुक्ति का स्वरूप विचारा या जाना जाता है उस समय मन मुक्ति को चला जाता है, यह उपचार नय से है । द्रव्यकर्म, भावकर्म व नोकर्म का नाशकर जब जीव मुक्ति को जाता है, उस समय जीव द्रव्यमन व भावमन दोनों से रहित होता है, क्योंकि द्रव्यमन तो शरीराश्रित है और भावमन क्षयोपशमज्ञानाश्रित है। मुक्त जीव अशरीरी और क्षायिकज्ञानवाले होते हैं अतः उनके शरीर व क्षयोपशमज्ञान नहीं होता है। इससे सिद्ध हुआ कि मन मुक्ति को नहीं जाता।
-जें. सं. 4-9-58/V/ भा. घ. जैन, बनारस
संशो-प्रसंज्ञी शंका-असंज्ञी पंचेन्द्रिय मनुष्य या तिथंच कौन हैं ?
समाधान-देव, नारकी तथा मनुष्य गर्भज व सम्मूर्च्छन ( पर्याप्त व लब्ध्यपर्याप्त ) सब संज्ञी ही होते हैं। चतुरिन्द्रिय तिथंच तक सब प्रसंज्ञी होते हैं। पंचेन्द्रिय तिथंच संज्ञी व असंज्ञी दो प्रकार के होते हैं । देव, नारकी और मनुष्य असंज्ञी नहीं होते।
-जं. सं. 13-12-56/VII/ सौ. प. का. डबका प्रसंज्ञी के भी हित में प्रवृत्ति तथा अहित से निवृत्ति शंका-दृष्ट, श्रत अनुभूत को विषय करनेवाले मानसज्ञान का दूसरी जगह सद्भाव मानने में विरोध आता है। जब कि मनरहित जीवके इन समस्त धर्मों का अभाव है, तो उनकी हित में प्रवृत्ति और अहित में निवृत्ति कैसे संभव है?
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