Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
सम्यक्त्वमार्गणा में मिथ्यात्व नामक भेद का संग्रह उचित है
शंका-सम्यक्त्वमार्गणा में सम्यक्स्व के छह भेद कहे गये हैं। उन यह भेदों में से एक भेव मिथ्यात्व भी है । 'मिथ्यात्व' सम्यक्त्व का भेव कैसे हो सकता है वह तो सम्यक्त्व का प्रतिपक्षी है ?
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समाधान - यह सत्य है कि 'मिथ्यात्व' सम्यक्त्व का भेद नहीं है, क्योंकि वह सम्यक्त्व का प्रतिपक्षी है, किन्तु सम्यक्त्वमार्गरणा में मात्र सम्यक्त्व के भेदों का कथन नहीं है, किन्तु सम्यक्त्व की अपेक्षा समस्त संसारी जीवों का कथन किया गया है। नाना संसारी जीवों में सम्यक्त्व की क्या क्या अवस्था पाई जाती है ? इस प्रकार सम्यक्त्वमार्गणा में सम्यक्त्व की नाना अवस्थाओं की अपेक्षा समस्त संसारी जीवों की खोज की गई है। 'मार्गणा' का अर्थ ही खोज है ।
सम्यक्त्व की अपेक्षा खोज करने पर यह देखा जाता है कि “किन्हीं जीवों में उपशम सम्यक्त्व पाया जाता है जो दर्शनमोहनीय और चार अनन्तानुबन्धी इन सातप्रकृतियों के उपशम हो जानेपर उत्पन्न होता है। कुछ जीवों में क्षायिक सम्यक्त्व पाया जाता है जो उपर्युक्त सातप्रकृतियों के क्षय होने से उत्पन्न होता है । कुछ जीवों में क्षयोपशमसम्यक्त्व पाया जाता है जो छह प्रकृतियों के अनुदय और सम्यक्त्वप्रकृति के उदय से प्रगट होता है। कुछ जीवों के सम्यक्त्व का अभाव पाया जाता है, जिनकी दो अवस्था होती हैं अर्थात् सम्यक्त्व के अभाव में मिध्यात्वप्रकृति का उदय पाया जाने से 'मिध्यात्व' अवस्था होती है और अनन्तानुबन्धी के उदय के कारण सम्यक्त्व से च्युत हो जाने पर 'सासादनसम्यक्त्व' अवस्था होती है। कुछ जीवों के दधिगुड़ मिश्रण के समान, सम्यक्त्व और मिथ्यात्व दोनों का एक साथ सद्भाव पाया जाता है । सम्यग्मिध्यात्वरूप मिश्रप्रकृति के उदय होने से यह सम्यग्मिथ्यात्वरूप मिश्रअवस्था होती है ।"
सम्यक्त्व का अभाव भी तो सम्यक्त्व की अवस्था । अतः नानाजीव अपेक्षा सम्यक्त्व की अवस्थाओं का कथन करने के लिये सम्यक्त्वमार्गेरणा में सम्यक्त्व के अभावस्वरूप मिथ्यात्व का कथन किया गया है, अन्यथा सम्यक्त्वमार्गणा में समस्त संसारी जीवों का कथन नहीं हो सकता था ।
सर्वज्ञदेव ने सम्यक्त्वमार्गणा के निम्न छह भेद कहे हैं जिनको गरणधर द्वारा द्वादशांग में गुथित किया गया है और गुरु परम्परा से प्राप्त उस उपदेश को आचार्यों ने ग्रन्थों में लिपिबद्ध किया है । वह आग्रन्थ इस प्रकार है
सम्मत्तावावेण अस्थि सम्माइट्ठी खइयसम्माहट्टी वेदगसम्माइट्ठी उवसमसम्माइट्ठी सासणसम्माइट्ठो सम्मामिच्छाइट्ठी मिच्छाइट्ठी चेदि ॥ १४४ ॥ [ ष. खं., जीवस्थान, सत्प्ररूपणा ]
अर्थ – सम्यक्त्वमार्गणा अनुवाद से सम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्डष्टि, सासादनसम्यग्डष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और मिथ्यादृष्टि जीव होते हैं ।
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- जै. ग. 1-11-65 / VIII / शांतिलाल
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