Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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समाधान-मो० शा० अ० २ सत्र ४३ में कहा है कि एक जीव के एक साथ चार शरीर सम्भव हैंतदादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्यः ॥४३॥ तैजस, कार्माण, औदारिक और आहारक ये चार शरीर एक जीव के एक साथ हो सकते हैं। इनमें से तैजस और कार्माण शरीर का सम्बन्ध अनादिकाल से है। किन्तु जिस समय औदारिक शरीर या आहारक शरीर का इस आत्मा के साथ नवीन सम्बन्ध होता है उस समय प्रथम अन्तमूहर्त में औदारिक मिश्र या आहारक मिश्र काययोग होता है। मिश्र काययोग अपर्याप्त अवस्था में होता है। उस शरीर सम्बन्धी पर्याप्ति पूर्ण न होने के कारण अपर्याप्त कहा है। आहारक ऋद्धिधारी प्रमत्त संयत मुनि के जब आहारक शरीर की उत्पत्ति होती है उस समय औदारिक शरीर सम्बन्धी पर्याप्ति तो पूर्ण हो जाती है किन्तु आहारक शरीर सम्बन्धी पर्याप्ति अपूर्ण होती है। अतः औदारिक शरीर सम्बन्धी पर्याप्तक और आहारक सम्बन्धी अपर्याप्तक लिखा है। इस विषय को स्वय श्री १०८ वीरसेन स्वामी ने १० ख० पु०१ पत्र ३१८ पर विशेष खोला है।
-. स. 7-3-57/......./ब. बा., हजारी बाग अपर्याप्त, नित्यपर्याप्त तथा पर्याप्त जीवों का स्वरूप ..." शंका-पर्याप्त, अपर्याप्त, लब्ध्यपर्याप्त, निर्वृत्यपर्याप्त कौन जीव होते हैं ?
समाधान-पर्याप्ति छह हैं-१. आहार पर्याप्ति, २. शरीर पर्याप्ति, ३. इंद्रिय पर्याप्ति, ४. उच्छवासनिःश्वास पर्याप्ति, ५ भाषा पर्याप्ति, ६. मनः पर्याप्ति । इन छहों पर्याप्तियों का स्वरूप इस प्रकार है
"आहारशरीरेन्द्रियोच्छवासनिःश्वास भाषा मनः सम्बन्धेन पोढा भवतीत्यर्थः। तत्र आहारवर्गणाऽऽयातपूगलस्कन्धानां खलरसभागरूपेण परिणमने आत्मनः शक्तिनिष्पत्तिराहारपर्याप्तिः॥१॥ खलमागमस्थ्यादि कठिनावयवरूपेण रसभागं च रसरुधिरादि द्रवावयवरूपेण परिणमयितु जीवस्य शक्तिनिष्पत्तिः शरीरपर्याप्तिः ॥२॥ स्पर्शनादिन्द्रियाणां योग्यदेशावस्थितस्वस्वविषयग्रहणं जीवस्य शक्तिनिष्पत्तिः इंद्रियपर्याप्तिः ॥३॥ आहारवर्गणाssयातपुद्गलस्कन्धान उच्छ्वासनिःश्वासरूपेण परिणमयितु जीवस्य शक्तिनिष्पत्तिरुच्छ्वासनिःश्वासपर्याप्तिः ॥४॥ भाषावर्गणाऽऽयातपुद्गलस्कन्धान सत्यादिचतुर्विधवाक्स्वरूपेण परिणमयितु जीवशक्तिनिष्पत्तिः भाषापर्याप्तिः ॥५॥ दृष्टव तानुमितार्थानां गुण-दोष-विचारणादिरूप भावमनः परिणमने मनोवर्गणाऽऽयातपुद्गलस्कन्धान द्रव्यमनोरूपेपरिणामेन परिणयितुं जीवस्य शक्तिनिष्पत्तिर्मनःपर्याप्तिः ॥ ६॥ षट् मिलिता एका पर्याप्तिप्रकृतिः।" कर्म प्रकृति पृ० ४७ ।
अर्थ-पर्याप्तियों के छह भेद हैं-आहार पर्याप्ति, शरीर पर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति, उच्छवास पर्याप्ति, भाषा पर्याप्ति, मन पर्याप्ति । आहार वर्गणा के पुद्गलस्कन्धों को खल और रस रूप से परिणत करने की प्रात्मशक्ति की निष्पत्ति आहार-पर्याप्ति है ॥१॥ खल भाग को हड्डी आदि कठिन अवयवों के रूप में और रस भाग को रक्त प्रादि के रूप में परिणत करने की जीव-शक्ति की निष्पत्ति शरीर पर्याप्ति है ॥२॥ स्पर्शनादि इंद्रियों के अपने योग्य क्षेत्र में अपने-अपने विषयों को ग्रहण करने रूप जीव शक्ति की निष्पत्ति इन्द्रिय पर्याप्ति है|३| आहारवर्गणा-पुद्गलस्कन्धों को श्वासउच्छ्वास रूप में परिणत करने की जीव-शक्ति श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति है ॥४॥ भाषा वर्गणा के पुद्गलस्कन्धों को सत्यादि चार प्रकार के वचन रूप से परिणत करने की जीव-शक्ति भाषापर्याप्ति है ॥५।। मनोवर्गणा के पुद्गलस्कन्धों को, इष्ट श्रुत अनुमानित पदार्थों के गुण-दोष विचारने रूप भावमन को कारण द्रव्य-मन, ऐसे द्रव्यमनरूप परिणत करने को जीव-शक्ति मनःपर्याप्ति है ।।६।। ये छह पर्याप्ति मिलकर पर्याप्ति नाम कर्म होता है।
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