Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ २३३
यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि जीव के सम्पूर्ण प्रदेशों में क्षयोपशम की उत्पत्ति स्वीकार की है। परन्तु ऐसा मान लेने पर भी जीव के सम्पूर्ण प्रदेशों के द्वारा रूपादि की उपलब्धि का प्रसंग भी नहीं आता है, क्योंकि रूपादिक के ग्रहण करने में सहकारी कारणरूप बाह्य निर्वृत्ति जीव के सम्पूर्ण प्रदेशों में नहीं पाई जाती है। इस पर पुनः शंका हुई कि द्रव्येन्द्रिय प्रमाण जीव-प्रदेशों का भ्रमण नहीं होता, अर्थात् वे अचल हैं ऐसा क्यों नहीं मान लिया जावे? इसका समाधान इस प्रकार किया गया है
इति चेन्न, तभ्रमणमन्तरेणाशुधमज्जीवानां भ्रमभूम्यादिदर्शनानुपपत्तेः इति । धवल पु. १ पृ. २३६ ।
अर्थ-यदि ऐसी शंका की जाती है तो वह ठीक नहीं है, क्योंकि यदि द्रव्येन्द्रिय प्रमाण जीव-प्रदेशों का भ्रमण नहीं माना जावे तो अत्यन्त द्रुतगति से भ्रमण करते हुए ( तेजी से चक्कररूप भ्रमण करते हुए ) जीवों को भ्रमण करते हुए मकान आदि का ज्ञान नहीं हो सकता। इसलिये आत्मप्रदेशों के भ्रमण करते समय द्रव्येन्द्रिय प्रमाण आत्म-प्रदेशों का भी भ्रमण स्वीकार कर लेना चाहिए। इसका यह अभिप्राय है कि बालक जब सबसे छोटे गोल घेरे रूप तेजी से चक्कर काटता है तो व्यायाम के कारण उसके आत्मप्रदेश भी तेजी से भ्रमण करने लगते हैं। यही कारण है कि थककर बैठ जाने पर भी कुछ देर तक उस बालक को दृश्यमान पदार्थ भ्रमण करते हुए दिखाई पड़ते हैं।
बाह्य निवृत्तिरूप जो पुद्गलद्रव्य है उसमें से भी प्रतिसमय नवीन नोकर्म वर्गणा आती रहती है और पुरातन नोकर्म वर्गणा निर्जीर्ण होती रहती है।
- पताधार/77-78 ज. ला. न, भीण्डर कायमारणा
निगोद की काय का निर्णय
शंका-पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः स्थावराः सूत्र में निगोद को क्यों शामिल नहीं किया ? क्या निगोद वनस्पति में ही होता है ? अन्यत्र नहीं ?
समाधान-वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकार के हैं। एक 'साधारण' और दूसरे 'प्रत्येक' । प्रत्येक के भी दो भेद हैं। एक निगोद रहित और दूसरे निगोद सहित । जो निगोद सहित प्रत्येक हैं उनको भी कोई-कोई साधारण कह देते हैं। साधारण ही निगोद है। वह 'नित्य निगोद' और चतुर्गति के भेद से दो प्रकार का है। ये दोनों निगोद भी 'बादर', 'सक्ष्म के भेद से दो प्रकार के हैं। जो प्रत्येक वनस्पति है वह बादर ही होती है अतः निगोद वनस्पतिकायिक ही होता है।
-जें. सं. 28-6-58/VI/ र. ला. क , केकड़ी खान से निकले पत्थर में सचित्तता-प्रचित्तता शंका-खान से निकलने के पश्चात् पत्थर में जीव रहता है या नहीं? यदि रहता है तो पत्थर बढ़ता क्यों नहीं, जब कि खान में बढ़ता है ? उसका भोजन पानी क्या है और उसे कहां से मिलता है ?
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